कुत्ते की कहानी – कहानी – मुंशी प्रेमचंद

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बालको! तुमने राजाओं और वीरों की कहानियां बहुत सुनी होंगी, लेकिन किसी कुत्ते की जीवन-कथा शायद ही सुनी हो। कुत्तों के जीवन में ऐसी बात ही कौन-सी होती है, जो सुनाई जा सके। न वह देवों से लड़ता है, न परियों के देश में जाता है, न बड़ी-बड़ी लड़ाइयां जीतता है; इसलिए भय है कि कहीं तुम मेरी कहानी को उठाकर फेंक न दो। किंतु मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि मेरे जीवन में ऐसी कितनी ही बातें हुई हैं, जो बड़े-बड़े आदमियों के जीवन में भी न हुई होंगी।

इसीलिए मैं आज अपनी कथा सुनाने बैठा हूं। जिस तरह तुम कुत्तों को दुत्कार दिया करते हो, उसी भांति मेरी इस कथा को ठुकरा न देना। इसमें तुम्हें कितनी ही बातें मिलेंगी और अच्छी बातें जहां मिलें, तुरंत ले लेनी चाहिए। जब मेरा जन्म हुआ तो मेरी आंखें और कान बंद थे। इसलिए नहीं कह सकता कि बाजे-गाजे बजे या नहीं, गाना-बजाना हुआ या नहीं। मुझे तो कुछ सुनाई नहीं दिया। हां, जिस बिछावन पर मैं लेटा था, वह रुई की भांति नर्म था। सर्दी जरा भी न लगती थी। मैं दिल में समझ रहा था कि किसी बड़े घर में मेरा जन्म हुआ है, लेकिन जब आंखें खुलीं तो मैंने देखा कि एक भाड़ की राख में अपनी माता की छाती से चिपटा हुआ पड़ा हूं। हम चार भाई थे। तीन लाल थे। मैं काला था, उस पर सबसे छोटा और सबसे कमजोर।

माता भी हम लोगों के पास कम रहती थीं। उन्हें खाने की टोह में इधर-उधर दौड़ना पड़़ता था। वह रात-रात-भर जागकर गांव की रक्षा करती थीं। क्या मजाल कि कोई अनजान आदमी गांव में कदम रख सके! दूसरे गांव के कुत्तों को तो वह दूर ही से देखकर भगा देती थी। जब किसी खेत में कोई सांड़ घुसता तो उसे दूर तक भगा आतीं, मगर इतना सब-कुछ करने पर भी कोई उन्हें खाने को न देता। बेचारी पेट की आग से जला करती थीं। उस पर हम लोगों की चिंता उन्हें और मार डालती थी। इसीलिए जब भूख सताती तो कभी-कभी वह चोरी से घरों में घुस जातीं और खाने की जो चीज मिल जाती, लेकर निकल भागतीं। उन्हें देखते ही लोग मारने दौड़ते और घरों के द्वार बंद कर लेते।

एक दिन बड़ी ठंड पड़ी। बादल छा गये और हवा चलने लगी। हमारे दो भाई ठंड न सह सके और मर गये। हम दो ही रह गये। माताजी बहुत रोयीं, मगर क्या करतीं? गांववालों को फिर भी उन पर दया न आयी। आदमी इतने मतलबी और बेदर्द होते हैं, यह मैंने पहली बार देखा।

एक दिन गांव में उत्सव था। एक बनिए के यहां ब्राह्मण-भोज था। सैंकड़ों आदमी जमा थे। पूरियां बन रही थीं। माता जी बार-बार उधरजातीं, पर दुत्कार पाकर भाग आती थीं। किसी को इतनी दया न आती थी कि एक टुकड़ा उनकी ओर फेंक दे। एक टुकड़ा दे देने से कुछ कमी न पड़ जाती, पर यह कौन समझाये? जब सब चीजें तैयार हो गयीं तो आंगन में पत्तल डाल दिए गये। लोग अपने-अपने आसन पर जा बैठे और भोजन परसा जाने लगा। उसी समय माता जी बहां पहुंचीं। माता जी भागीं नहीं, पूंछ हिलाने लगीं और वहीं बैठ गयीं। वह आदमी जब किसी काम से भीतर चला गया तो माता जी भी दबे पांव दालान में जा पहुंचीं। उन्हें देखकर चारों तरफ से धत्‌-धत्‌ का ऐसा कोलाहर मचा कि माता जी घबरा गयीं। दो-तीन आदमी डंडे लेकर दौड़े। माता जी को अगर दालान से निकल जाने का रास्ता मिलता तो वह उधर से बाहर निकल जातीं, लेकिन उधर लोग डंडे लिए खड़े थे, इसलिए माता जी बैठे हुए आदमियों के बीच से होकर मोरी के रास्ते बाहर निकल आयीं। मगर तमाशा तो देखिए कि माता जी के बाहर निकलते ही भोजन करनेवाले भी उठ खड़े हुए। जानते हो क्यों? माता जी के उधर से निकलने के कारण भोजन भ्रष्ट हो गया। विचार होने लगा कि क्या किया जाये? बेचारा बनिया फूट-फूटकर रोने लगा। कुछ लोग कहते थे – इसमें दोष ही क्या है? कुतिया ने पत्तलों में मुंह तो डाला नहीं; छूने से क्या होता है? किंतु जो बहुत कुलीन थे, वे कुतिया का बीच से निकल जाना ही भोजन को भ्रष्ट करने के लिए काफी समझते थे। आखिर इन्हीं कुलीनों की जीत हुई और सारा भोजन गरीबों में बांट दिया गया। उस दिन माता जी ने खूब पेट-भर खाया। ऐसा सुख उन्हें जीवन में कभी न मिला था।लेकिन उस बेचारी के भाग्य में सुख लिखा ही न था। भोजन करके जरा लेटी ही थीं कि बनिया डंडा लिए आ पहुंचा और लगा पीटने। माता जी को भागने का अवसर न मिला। जोर-जोर से चिल्लाने लगीं। उनका विलाप सुन पत्थर भी पसीज जाता, पर उस निर्दयी को जरा भी दया नहीं आयी। मैं मन में कुढ़ रहा था। अपना कुछ वश होता तो बनिए राम को इस बेदर्दी का मजा चखा देता। लेकिन जरा-सा बच्चा क्या करता! बस, यह विलाप सुनकर कुछ लोग जमा हो गये और समझाने लगे, “जाने दो भाई, भूख में तो आदमियों बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है, यह तो पशु है! इसे क्या मालूम, किसका फायदा हो रहा है, किसका नुकसान! अब तो जो हो गया, सो हो गया! इसे मारकर क्या पाओगे?” बनिए के चित्त में यह बात बैठ गयी और माता जी की जान छूटी।

उसी दिन शाम को एक बटोही गांव में आकर ठहरा। उसने एक पेड़ के नीचे उपले जलाये और हांडी में दाल चढ़ाकर आटा गूंधने लगा। आटा गूंध चुकने पर उसने हांडी उतार दी और सामने के कुएं पर पानी लेने चला गया। गूंधा आटा पत्तल पर रखा हुआ था। इतने में माता जी घूमती हुई वहां पहुंच गयीं और शायद यह समझकर कि आटे का कोई मालिक नहीं, वह खाने लगीं। मुसाफिर ने कुएं पर से ही धत्‌-धत्‌ करना शुरू किया, लेकिन माता जी ने फिर भी न देखा। बेचारा माथे पर हाथ धरकर रोने लगा। आज तीन दिनों का भूखा, थका-मांदा, उस पर भगवान की यह लीला! दो-तीन आदमियों ने समझाया, “भाई, तुम्हारा तो चार छः आने का नुकसान हुआ, कल तो इसने हजारों पर पानी फेर दिया।” मुसाफिर ने कहा, “मैं क्या जानता था कि चांडालिन घात में बैठी हुई है!” बूढ़े चौधरी बोले, “जान पड़ता है, आज का तुम्हारा भोजन उसी के भाग्य में था। मसल है – ‘शाह की मुहर आने-आने पर, खुदा की मुहर है दाने-दाने पर।’ फिर से बनाकर खा लो।” बेचारे मुसाफिर ने फिर से चौका लगाया और भोजन बनाने लगा। चौधरी वहीं बैठे रहे। मुसाफिर ने पूछा, “बाबा, मैं आपकी उस कहावत का मतलब नहीं समझा! जरा समझा दीजिए।” चौधरी बोले, “एक फकीर यही कहकर सबके दरवाजे पर भीख मांगता फिरता था – ‘शाह की मुहर आने-आने पर, खुदा की मुहर दानेदो पर’।” “एक मनचले रईस ने उस फकीर से कहा – ‘साईं, यह बात समझ में नहीं आती, भला दानों पर कैसी मुहर।’ “साईं ने कहा – ‘नहीं बेटा, खुदा जिसको जो दाना देना चाहेगा, वही पा सकता है। दूसरा हरगिज नहीं पा सकता। इसकी जब चाहो तब परीक्षा कर सकते हो’।” “रईस ने कहा – ‘लीजिए, मैं अभी परीक्षा लेता हूं। अगर यह बात सच निकली तो मैं आपका गुलाम हो जाऊंगा’।” “रईस ने ज्वार का एक दाना हाथ में लिया और कहा – ‘देखिए, मैं इसे अपने मुंह में डालता हूं। अगर खुदा की इस पर मुहर है, किसी और को दे दे’।” “यह कहकर उसने दाने को अपने मुंह में फेंका, पर दाना मुंह में न जाकर जमीन पर गिर पड़ा और एक चिड़िया उठाकर ले गयी। “रईस भौंचक्का-सा रह गया। बस, आप भी याद रखिए कि न तो कोई किसी को खिलाता है, और न किसी का खाता है। सबको खिलानेवाला ईश्वर है।”

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