कुत्ते की कहानी – कहानी – मुंशी प्रेमचंद
उस देश में हम लोग लगभग एक महीना रहे। जंगली लोगों ने साहबों को कभी बाहर न निकाला। बातचीत भला क्या करते! शायद वे सब समझते थे कि इन देवताओं को बाहर निकाला गया तो न मालूम उस देश को किस आफत में डाल दें। देवताओं को वे कोई भयानक जीव समझते थे, जिसने नुकसान के सिवाय कोई फायदा नहीं पहुंच सकता। इस एक महीने में मैंने देश की अच्छी तरह छानबीन कर ली। उसके एक तरफ तो समुद्र था। पश्चिम की तरफ एक बहुत ऊंचा पहाड़ था, जिस पर बर्फ जमी हुई थी। दक्षिण की तरफ पथरीला मैदान था, जहां मीलों तक घास के सिवा कोई चीज न थी। यहां से भागें भी तो जायें कहां? मुझे यह फिक्र बराबर सताया करती थी। समुद्र के किनारे जंगली लोग बराबर आते-जाते रहते थे, इसलिए उधर जाने में फिर पकड़ लिए जाने का भय था! ऊंचे पहाड़ पर चढ़ना बहुत कठिन था और फिर कौन जानता है उस पार क्या हो! उस पार पहुंचना भी असंभव जान पड़ता था। उसी मैदान की तरफ भागने का रास्ता था। सौ-पचास कोस भागने पर शायद कोई दूसरा देश मिल जाये, जहां के आदमी ऐसे जंगली न हों। यही मैंने निश्चय किया।
एक दिन बड़ी ठंड पड़ रही थी। चारों ओर कुहरा छाया हुआ था। आज साहब की झोंपड़ी के सामने दोनों पहरे वाले ठंड के मारे अपनी झोंपड़ियों में सोये हुए थे। मैदान साफ था। मैंने सोचा, इस अवसर हो हाथ से न जाने देना चाहिए। ऐसा अवसर फिर शायद ही मिले। जब सब लोग सो गये तो मैंने पत्थर खिसकाया और झोंपड़ी का द्वार खोलकर साहब-मेम को बाहर निकलने का इशारा किया। साहब मेरे इशारे खूब समझने लगे थे। दोनों प्राणी तुरंत निकल खड़े हुए। मैं आगे-आगे चला। दो दिन का खाना मैंने पहले ही से लाकर साहब को दे दिया था। इसकी चिंता न थी। बस, फिक्र यही थी कि हम लोगों का यहां न पाकर वे जंगली आदमी हमारा पीछा न करें; इसलिए रात-भर में हमसे जितना चला जा सके, उतना चलना चाहिए। खूब अंधेरा छाया हुआ था। मैं तो बेखटके चला जाता था, पर साहबों को बड़ा कष्ट हो रहा था। मेम साहब तो थोड़ी-थोड़ी दूर पर बैठ जातीं थीं, साहब के बहुत कहने-सुनने पर ही उठती थीं। एक बार मेम साहब झुंझलाकर बोलीं, “आखिर इस तरह हम लोग कब तक चलेंगे?” साहब-“जब तक चला जाये।” मेम, “यहीं ठहर क्यों नहीं जाते, सवेरे चलेंगे।” साहब-“और जो सवेरे पकड़ लिए गए तो?” मेम ने इसका कुछ जवाब न दिया। फिर चलीं, मगर भुनभुना रही थीं कि इससे तो हमारी कैद ही अच्छी थी कि आराम से पड़े तो थे।
यहां लाकर न जाने किस जंगल में डाल दिया कि प्यासे मर जायें। कहीं बस्ती का नाम नहीं। इस तरह हम लोग आधे घंटे तक लगे होंगे कि पीछे से बहुत से आदमियों का शोर सुनाई दिया। मालूम होता था, सैंकड़ों आदमी दौड़े चले आते हैं। मैं समझ गया कि हमारे भागने का भेद खुल गया है और वही लोग हमें पकड़ने चले आ रहे हैं। साहब ने मेम से कहा, “लगता है वही शैतान हैं, हम लोग पकड़ लिए जायेंगे।” मेम-“हां-हां, मालूम तो होता है।” साहब-“बेचारा कल्लू यहां तक तो ले आया, अब हमारे नसीब ही फूटे हों तो वह क्या कर सकता है?” मेम-“हम लोग भी दौड़ें। शायद कहीं कोई ठिकाना मिल जाये।” दोनों आदमी दौड़े। वही मेम साहब जिन्हें एक-एक पग चलना दूभर हो रहा था, दौ़डने लगीं। हिम्मत में इतना बल है! सबसे बड़ी बात यह थी कि पूरब की ओर अब कुछ प्रकाश दिखाई देने लगा ता। जरा देर में दिन निकल आयेगा, तब हमें यह तो मालूम हो जायेगा कि हम जा किधर रहे हैं, मगर साथ-ही-साथ हम दौड़ते जाते थे। इस तरह आधा घंटा और गुजरा। अब पौ फटने लगी थी। रास्ता साफ नजर आने लगा, मगर पीछा करनेवाले भी बहुत समीप पहुंच गये।
उनकी आवाज साफ सुनाई देती थी। भूमि बराबर होती तो शायद वे दिखाई भी देने लगते हैं। मैं यह सोचता हुआ दौड़ रहा था कि अगर सबों ने आ पकड़ा तो हम कैसे अपनी रक्षा करेंगे? सहसा हमें एक गहरी गार-सी नजर आयी। मैंने सोचा, इस गार में छिप जायें और उसके मुंह को घास-फूस से छिपा दें तो शायद उन काले आदमियों से जान बच जाये। अगर पकड़ लिए गये तो फिर उसी काल-कोठरी में सड़ेंगे; बच गये तो दिन-भर में न जाने हम कितनी दूर निकल जायेंगे। यह सोचकर मैं उस गार के अंदर घुसा। मेम और साहब दोनों मेरा मतलब समझ गये। मेरे पीछे-पीछे वे दोनों भी गार में घुसे, पर दोनों डर रहे थे कि कहीं शेर या चिता अंदर न बैठा हो। मैं आगे था। थोड़ी ही दूर गया हूंगा कि दो दीपक-से उस अंधकार में जलते दिखाई दिये। मैं जोर से चिल्लाकर पीछे हटा। सामने सचमुच एक शेर बैठा हुआ था। अब क्या करूं? मेरे तो जैसे होश-हवास गुम हो गये – मैं न आगे जा सकता था, न पीछे, बस, वहीं पत्थर की मूर्ति की भांति खड़ा था। साहब और मेम दोनों बेहोश होकर गिर पड़े। मैं तो भला खड़ा रहा, पर उन दोनों जनों की तो जान ही निकल-सी गयी। अब मेरे होश ठिकाने हुए। अपना डर जाता रहा। जाकर उन दोनों को सूंघा। मरे न थे। जान बाकी थी। सोचने लगा – अब क्या करूं? एक आफत से तो मर-मर के बचे थे, यह नयी मुसीबत पड़ गयी! मगर यह बात क्या है कि शेर अपनी जगह से हिला तक नहीं, कूदकर झपटना तो दूर रहा। चुपचाप मेरी ओर ताक रहा था। मुझे उसकी आंखों में कुछ ऐसी बात नजर आयी कि मेरा खौफ जाता रहा। मैं डरते-डरते एक कदम और आगे बढ़ा, फिर भी शेर अपनी जगह से न हिला। अब मेरे कानों में धीरे-धीरे कराहने की आवाज हुई। समझ गया बीमार है। जरा और पास गया तो शेर ने दर्द-भरी आवाज मुंह से निकाली और अपना अगला दाहिना पैर उठाया। वह बुरी तरह फूला हुआ था। अब समझ में आ गया। इसी वजह से यह महाशय दम साधे बैठे हुए थे। बार-बार पूंछ हिलाते थे, जम्हाइयां लेते थे और हम लोगों को कूं-कूं करते थे। जरूर इसके पांव में कांटा चुभा हुआ है। मगर मैं कैसे निकालता? यहां भी तो दांत बिल्कुल शेरों ही जैसे हैं। पहले तो जी में आया कि यह कुछ कर तो सकते नहीं, इन्हें यहीं पड़ा रहने दूं। कहीं ऐसा न हो कि कांटा निकलते ही इनका मिजाज बदल जाये और एक ही जस्त में हम तीनों को चट कर जायें। मगर फिर दया आयी। ऐसा तो हम लोग कभी नहीं करते की किसी का एहसान भूल जायें। यह भी तो हमारी बिरादरी का जीव है। यह सोचकर मैं साहब के होश में आने की राह देखने लगा। आखिर थोड़ी देर में उनकी आंखें खुलीं। मुझे शेर के पास बैठे देखकर कुछ हिम्मत हुई। वहां से भागे नहीं। शेर ने उन्हें देखकर भी पूंछ हिलाना शुरू किया और बार-बार अपना सूजा पंजा उठाने लगा। साहब भी समझ गये कि शेर लंगड़ा है। साहब ने मेम को कई बार झिंझोड़ा। जब मेम को भी होश आ गया तो दोनों आपस में कुछ देर तक बातें करते रहे।तब साहब ने शेर के पास जाकर उसका पंजा उठाया और धीरे-धीरे कांटा निकाल दिया। शेर का दर्द जाता रहा। उसने साहब के पैरों पर सिर रख दिया और पूंछ हिलाने लगा।
एकाएक बाहर आदमियों के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी। मैं समझ गया कि जंगली लोग हमारा पीछा करते हुए आ पहुंचे हैं। मैं जाकर द्वार पर खड़ा हो गया – यहां तो किसी को आने न दूंगा, चाहे मर ही क्यों न जाउं? मैं द्वार पर आया ही था कि दस-बारह आदमी लंबे-लंबे भाले लिए, मुंह पर लाल रंग लगाये सामने आ खड़े हुए और मुझे देखते ही तालियां बजाकर खुश होने लगे। खुश हो रहे थे कि अब मार लिया, बचकर कहां जा सकते हैं। दो-तीन आदमी गार में पैठने की कोशिश करने लगे। उस भाले और ढाल के सामने मेरी क्या चलती! बस खड़ा भौंक रहा था। अरे! क्या आसमान फट पड़ा! या दो पहाड़ लड़ गये? ऐसे जोर की गरज हुई कि सारी गुफा हिल गयी। शेर की गरज थी। आदमियों को द्वार पर देखते ही उसने एक जस्त मारी और द्वार पर आ पहुंचा। कुछ न पूछो, उन दुष्टों में कैसी भगदड़ मच गयी। भाले और ढालें छोड़ छोड़ कर एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते भागे, मगर एक को शेर ने दबोच लिया और हमारे सामने ही उसे चट कर गया। मेरे तो रोयें खड़े हो गये और मेम साहब ने आंखें बंद कर लीं। मैं सोचने लगा – किसी तरह यहां से भाग जाना चाहिए। इस भयानक जानवर का क्या ठिकाना? न जाने कब इसका मिजाज बदल जाये और हमारी तुक्का-बोटी कर डाले। कोई घंटे-भर तो मैं वहां जब्त किए बैठा रहा। जब मैंने बाहर आकर देख लिया कि उन आदमियों में से एक का भी बता नहीं, तब मैंने साहब से चलने का इशारा किया। वे दोनों डरते-डरते निकले और फिर उसी तरफ चल पड़े।
शेर सिर झुकाये हमारे आगे इस तरह चला जा रहा था, जैसे गाय हो। फिर भी मेरा तो यही जी चाहता था कि यह महाशय अब हमारे ऊपर दया करते और हमें अपनी राह जाने जेते। शाम होते-होते हम लोग एक जंगल में पहुंच गये। इतना घना जंगल था कि कुछ सुझाइ न देता था। शेर के पीछे-पीछे चले जाते थे। एकाएक वह कोई आहट पाकर ठिठक गया। फिर कान खड़े कर लिए और आहिस्ता-आहिस्ता गुर्राने लगा। सहसा सामने एक शेर आ गया। मेरी तो जान निकल गयी और साहब और मेम दोनों एक पेड़ की आड़ में दुबक गये, मगर उस शैतान ने हमें देख लिया था। वह जोर से गरजकर साहब की तरफ चला कि हमारे शेर ने लपककर उस पर हमला किया। दोनों गुंथ गये। हमारे प्राण सूखे जाते थे। कहीं उसने हमारे मित्र शेर को मार लिया तो फिर हम लोगों की खैरियत नहीं। मैं चाहता तो भाग जाता, पर साहब और मेम को छोड़कर कैसे भागता? पेड़ इतने सीधे और घने थे कि उन पर चढ़ना मुश्किल था। मन में मना रहे थे कि हमारे शेर की जीत हो। कभी वह दबा लेता, कभी यह; कभी पंजों से लड़ते, कभी दांतों से। दोनों पंजों से लड़ते-लड़ते खड़े हो जाते। मुंह और बदन सेखून बह रहा था, दोनों की आंखों से ज्वाला निकल रही थी, दोनों गरज रहे थे और हम सांस रोके हुए यह लड़ाई देख रहे थे। घंटे-भर की लड़ाई के बाद आखिर हमारे मित्र की जीत हुई। उसने उसे चित गिरा दिया और पंजे से उसका पेट फाड़ डाला। हम तीनों खुशी से नाचने लगे, मगर हमारे मित्र शेर का भी कचूमर निकल गया था। सारी देह जख्मों से चूर हो रही थी। वहीं लेट गये।
हमने भी वहीं रात काटी। खाने को कुछ न मिला। साहब और मेम ने रास्ते में कोई फल खाया था, पर मुझे फलों से क्या मतलब? मुझे तो शिकार चाहिए और अंधेरे में कोई शिकार करना कठिन था। मैं उपासा ही रह गया। दूसरे दिन हम लोग समुद्र के किनारे पहुंचे, मगर अफसोस! मैं समुद्र के किनारे किसी शिकार की टोह में था कि हमारे मित्र शेर ने, जो थककर एक चट्टान की आड़ में बैठा था, धीरे धीरे कराहना शुरू किया। मैंने जाकर देखा तो उसकी आंखें पथरा गयी थीं। थोड़ी देर में वह वहीं मरगया। कल की लड़ाई में वह बहुत घायल हो गया था। मैं बड़ी देर तक उसकी लाश पर बैठा रोता रहा। मेम और साहब भी बहुत दुखी हुए, मगर समुद्र के किनारे पहुंचने की खुशी में वह गम जल्द भूल गया। मैं अभी शिकार की तलाश में ही था कि सहसा किसी चीज के घरघराने की आवाज कानों में आयी। ऐसी आवाज मैंने कभी नहीं सुनी थी। रेल की आवाज सुन चुका था – भक्-भक्-भक्-भक्; मोटरकार की आवाज सुन चुका था। यह आवाज उन सभी से अलग थी, जैसे आसमान पर कोई पवन-चक्की चल रही हो। साहब और मेम साहब आवाज सुनते ही आसमान की ओर देखने लगे। मैंने भी ऊपर देखा। कोई बड़ी चीलसी दिखाई दी! साहब ने अपनी टोपी उतारकर हवा में उछाली, मेम साहब भी अपना रूमाल हिलाने लगीं। दोनों तालियां बजाते थे, नाचते थे। मेरी समझ में कुछ न आता था – ये लोग क्यों इतने खुश हो रहे हैं? मगर यह क्या बात है? वह आसमान में उड़नेवाली चिड़िया तो नीचे उतरने लगी। ओह! कितनी बड़ी चिड़िया थी! मैंने कभी इतनी भीमकाय चिड़िया न देखी थी। अजायबखाने में शुतुरमुर्ग देखा था, मगर वह भी इसके सामने ऐसा था, जैसे छोटा-सा कबूतर। देखते-देखते वह नीचे आया और उसमें से दो आदमी उतर पड़े। पीछे मुझे मालूम हुआ कि यह भी एक तरह की सवारी है, जो आदमियों को लेकर हवा में उड़ती है। उन दोनों ने हमारे साहब और मेम के साथ हाथ मिलाया, कुछ बातें कीं और फिर उसी सवारी में जा बैठे।
एक क्षण में साहब ने मुझे गोद में उठा लिया और मेरा मुंह चूमकर उसी सवारी में बिठा दिया। फिर मेम और वह भी आकर बैठ गये। मेरी तो मारे डर के जान सूखी जाती थी। क्या हम हवा में उड़ेंगे? कहीं यह कल बिगड़ जाये तो हमारी हड्डी-पसली का भी पता न चले। मगर साहब बार-बार मेरा सिर थपथपाकर मेरी हिम्मत बंधाते जाते थे। फिर चारों आदमी मेज पर बैठकर खाना खाने लगे। मुझे भी मांस का एक टुकड़ा दिया। मैं खाना खाने में ऐसा मस्त हुआ कि सारा भय दिल से जाता रहा। शोर इतना हो रहा था कि मेरा कलेजा कांपने लगा था। कई बार तो उसने ऐसी करवट ली की मुझे ऐसा लगा कि यह उलटना चाहती है। मैं चिल्लाने लगा। लेकिन जरा देर में वह संभल गयी। हम एक रात और एक दिन उसी सवारी में रहे। कभी तो वह इतनी ऊंची उठती मालूम होती कि सीधे तारों से टक्कर लेगी। साहब और मेम दोनों सो रहे थे, लेकिन मुझे नींद कहां! मैं तो बराबर ‘भगवान-भगवान’ कर रहा था कि किसी तरह वह संकट टले।
दूसरे दिन प्रातःकाल बड़े ज़ोर का तूफान आया। यह यंत्र भंवर में पड़ी हुई किश्ती के समान चक्कर खाने लगा। बिजली इतने जोर से कड़कती थी कि जान पड़ता था – सिर पर गिरी। चमक इतनी तेज थी कि आंखें झपक जातीं थीं। यंत्र कभी दाएं करवट हो जाता, कभी बाएं। कभी-कभी तो उसके पंख रुक जाते, और जान पड़ता वह नीचे की ओर गिरा जा रहा है। चारों आदमी घबराये हुए थे और ईश्वर-ईश्वर कर रहे थे। मेम साहब तो आंखों पर रूमाल रखे रो रही थीं। घबराया मैं भी कुछ कम न था, मगर मेम साहब के रोने पर मुझे हंसी आ गयी। पूछो, उनके रोने से क्या तूफान चला जायेगा? वह समय रोने का नहीं, दिल को मजबूत करके खतरे का सामना करने का था, लेकिन समझाता कौन? आखिर एक घंटे में अंधड़ शांत हो गया और यंत्र सीधा चलने लगा। दोपहर होते-होते वह एक बड़े मैदान में उतरा, जहां झंडियां गड़ी हुई थीं और उसी तरह के कंई और यंत्र रखे हुए थे।
साहब ने मुझे गोद में लेकर उतारा और एक मोटरकार पर बैठकर चले। अब मैंने देखा तो हम साहब के बंगले की ओर जा रहे थे। मेरे कितने ही दोस्त पुरानी सड़कों पर घूमते नजर आये। मेरा जी चाहता था, इनके पास जाकर गले मिलूं, उनका कुशल-क्षेम पूछुं और अपनी यात्रा का वृत्तांत सुनाऊं; लेकिन मोटर भागी जा रही थी। एक क्षण में हम बंगले पर पहुंचे। मैं अभी नींद भी न लेने पाया था कि नौकर ने आकर मुझे नहलाना शुरू कर दिया। फिर उसने मेरे गले में एक रेशमी पट्टा डाला और मुझे लाकर साहब के मुलाकाती कमरे में एक सोफा पर बिठा दिया। मेम साहब प्लेट में मेरा भोजन लायीं और अपने हाथों से खिलाने लगीं। उस वक्त मुझे ऐसा अभिमान हुआ कि क्या कहूं? जी चाहता था, मेरी बिरादरी वाले आकर देखें और मुझ पर गर्व करें। मुझ में कोई सुर्खाब के पर नहीं लग गये हैं। मैं आज भी वही कल्लू हूं – वही कमजोर, मरियल कल्लू। मगर मैंने अपने कर्तव्यपालन में कभी चूक नहीं की, सच्चाई को कभी हाथ से नहीं जाने दिया, मैत्री को हमेशा निभाया और एहसान कभी नहीं भूला। अवसर पड़ने पर खतरों का निडर होकर, हथेली पर जान रखकर, सामना किया। जो कुछ सत्य समझा उसकी रक्षा में प्राण तक देने को तैयार रहा, और उसी की बरकत है कि मैं आज इतना स्नेह और आदर पा रहा हूं। दूसरे दिन मैंने देखा कि कमरे के द्वार पर परदा डाल दिया गया है और वहां पर एक चपरासी बिठा दिया गया है। शहर के बड़े-बड़े आदमी मुझे देखने आ रहे हैं, और मुझ पर फूलों की वर्षा कर रहे हैं।
अच्छे-अच्छे जेंटलमैन कोट पतलून पहने, अच्छी-अच्छी महिलाएं गाउन और हैट से सुशोभित, बड़े-बड़े सेठ-साहूकार, बड़े-बड़े घरों की देवियां, स्कूलों और कालेजों के लड़के, फौजों के सिपाही, सभी आ-आकर मुझे देखते हैं और मेरी प्रशंसा करते हैं – कोई फूल चढ़ाता है, कोई डंडौत करता है, कोई हाथ जोड़ता है। शायद सब समझ रहे थे, यह कोई देवता है और इस रूप में संसार का कल्याण करने आया है। जेंटलमैन लोग देवता का अर्थ तो न समझते थे, पर कोई गैर-मामूली, चमत्कारी जीव अवश्य समझ रहे थे। कई देवियों ने तो मेरे पांव भी छुए। मुझे उनकी मूर्खता पर हंसी आ रही थी। आदमियों में भी ऐसे-ऐसे अक्ल के अंधे मौजूद हैं। दिन-भर तो यही लीला होती रही।
शाम को मैं अपने जन्म-स्थान की ओर भागा। मगर ज्यों ही नजदीक पहुंचा कि मेरे भाइयों का एक गोल मुझ पर झपटा। अभागे शायद यह समझ रहे थे कि मैं उनकी हड्डियां छीनने आया हूं। यह नहीं जानते कि अब मैं वह कल्लू नहीं हूं, मेरी पूजा होती है। मैंने दुम दबा ली और दांत निकालकर और नाक सिकोड़कर प्राणदान मांगा; पर उन बेरहमों को मुझ पर जरास भी दया न आयी। ऐसा जान पड़ता था, इनसे कभी की जान-पहचान ही नहीं है। मैं तो उनसे अपना दुख-सुख कहने और कुछ उपदेश देने आया था। उसका मुझे यह पुरस्कार मिल रहा था। ठीक उसी वक्त मेरे पुराने स्वामी पंडित जी लठिया टेकते चले आ रहे थे। उन्हें देखते ही जैसे मेरे बदन में नयी शक्ति आ गयी। दौड़कर पंडित जी के पास पहुंचा और दुम हिलाने लगा। पंडित जी मुझे देखते ही पहचान गये और तुरंत मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझे दुआ दी और प्रसन्न मुख होकर बोले, “तो अब बहुत बड़े ऋषि हो गये कल्लू! तुम्हारी तो अखबारों में तारीफ हो रही है। तुम इन गधों के बीच में कैसे आ फंसे?” और उन्होंने डंडा तानकर उन दुष्टों को धमकाया जो अभी तक मुझ पर झपटने को तैयार थे, मगर डंडा देखते ही सब-के-सब चूहों की तरह भागे।
मैं पंडित जी के पीछे-पीछे हो लिया और बचपन के क्रीड़ा-क्षेत्र की सैर करता हुआ पंडित जी के घर गया। बार-बार जकिया और माता जी की याद आ रही थी। यह आदर-सम्मान उनके बिना हेय था। पंडित जी के घर में मेरा पहुंचना था कि पंडिताइन ने दौडकर मुझे हाथ जोड़े। जरा देर में मुहल्ले में मेरे आने की खबर फैल गयी। फिर क्या था! लोग दर्शनों को आने लगे और कइयों ने तो मुझ पर पैसे और रुपये और मिठाइयां चढ़ाईं।
जब मैंने देखा कि भीड़ बढ़ती जा रही है तो वहां से चल खड़ा हुआ और सीधा अपने बंगले पर चला गया। और तब से कई नुमाइशों में जा चुका हूं, कई राजाओं का मेहमान रह चुका हूं। सुना है, मेरी कीमत एक लाख तक लग लयी है, मगर साहब मुझे किसी दाम पर भी अलग नहीं करना चाहते। मेरी खातिर दिनदिन ज्यादा होती जा रही है। मुझे रोज शाम-सवेरे दो आदमी सैर कराने ले जाते हैं; नित्य मुझे स्नान कराया जाता है और बड़ा स्वादिष्ट और बलवर्धक भोजन दिया जाता है। मैं अकेला कहीं नहीं जा सकता। मगर अब यह मान-सम्मान मुझे बहुत अखरने लगा है। यह बड़प्पन मेरे लिए कैद से कम नहीं है। उस आजादी के लिए जी तड़पता रहता है, जब मैं चारों तरफ मस्त घूमा करता था। न जाने आदमी साधु बनकर मुफ्त का माल कैसे उड़ाता है! मुझे तो सेवा करने में जो आनंद मिलता है, वह सेवा पाने में नहीं मिलता, शतांश भी नहीं।
मुंशी प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। उन्होंने तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उनमें से अधिकांश हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चाँद, सुधा आदि में लिखा। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया। प्रेमचंद फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई आए और लगभग तीन वर्ष तक रहे। जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबन्ध, साहित्य का उद्देश्य अन्तिम व्याख्यान, कफन अन्तिम कहानी, गोदान अन्तिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अन्तिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है।
1906 से 1936 के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आन्दोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखण्ड को ‘प्रेमचंद युग’ या ‘प्रेमचन्द युग’ कहा जाता है।