कुत्ते की कहानी – कहानी – मुंशी प्रेमचंद
जब हम दोनों भाई जरा बड़े हुए तो लड़कों ने हमें खिलाना शुरू किया। मैं बहुत खूबसूरत था। मुझे एक पंडित जी का एक लड़का पकड़ लाया। मेरे भाई को एक चफाली का लड़का पकड़ ले गया। मैं पंडित जी के घर पलने लगा। मेरा भाई डफाली के घर। उसे जकिया कहते थे और मुझे कल्लू। जाड़े का मौसम था। जब सब लड़के धूप में जमा हो जाते तो हमें गोद में ले लेते और चूमते। कोई कहता-हमारा बच्चा है। कोई कहता हमारा मुन्ना है। कोई लड़का एक कान पकड़कर उठाता और कहता-देखो भाई, चोर है या साह? जब तक कान दर्द न करते, मैं न बोलता। बस, सब कहने लगे-फेंको-फेंको, चोर है। मगर जब कान दुखने से चिल्ला उठता तो सब साह-साह कहकर हंस पड़ते। प्रायः यह खेल सैंकड़ों बार होता। कोई हमारे अगले पैरों को उठाकर कहता-मुरा मुन्ना दो पैर से चलता है। यों चलाये जाने से हमारे पैर दर्द करने लगते थे, पर करते क्या? कभी-कभी छोटे-बड़े लड़के छोटे बच्चों को मेरी पीठ पर बिठाकर कहते-मेरा लल्लू हाथी पर बैठा है। भला मैं उन लड़कों का बोझ क्या उठाता! जब चिल्लाने लगता तो जान बचती। कोई-कोई लड़के तो मेरे गले में रस्सी बांधकर दौड़ाते! भला मैं उनके बराबर कैसे दौड़ता? लेकिन वे अपनी धुन में मुझे घसीटते हुए ले जाते थे, इससे सारा बदन दुखने लगता था, मगर मुझ गरीब का वहां कौन मददगार बैठा था! कभी-कभी लड़के मुझे पासवाले गड्ढे में डाल देते और मेरी तैराकी का तमाशा देखते। जब मैं बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगता तो लड़के हंस-हंसकर कहते – देखो, कल्लू कैसा तैरता है! उस समय मैं डूबने-डूबने को हो जाता था। पांव जोर-जोर से चलाता हुआ किसी तरह किनारे आ जाता और मारे ठंड़ के कांपने लगता। जब धूप लगने से देह में कुछ गर्मी आती तो कोई शैतान लड़का बोल उठता – अबकी मेरी बारी है। सुनते ही मेरी जान-सी निकल जाती, मगर भागकर जाता कहां? कोई फिर पानी में डाल देता। क्या बतलाऊं कि उस समय किसना गुस्सा आता। बारबार यही जी में आ जाता था कि कोई इन दुष्टों को भी इसी तरह डुबकियां देता तो इनकी आंखें खुलतीं।
हम दोनों में से सुखी तो एक भी न था,पर जकिया की दशा मेरी दशा से अच्छी थी। पंडित जी के यहां मुझे रूखा-सूखा भोजन मिलता था और वह भी बहुत कम, इसलिए मुझे दूसरे द्वारों का चक्कर लगाना पड़ता था। डफाली मांस का प्रेमी था। रोजाना उसके घर मांस पका करता था, इसलिए जकिया को काफी भोजन मिल जाता था। उसे किसी दूसरे दरवाजे पर जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। कुछ तो बेफिक्री और कुछ पूरी खुराक मिलने की वजह से वह दिन-दिन ताकतवर और तंदुरुस्त बनने लगा। मैं कभी-कभी भूख से तंग आकर डफाली के दरवाजे पर पहुंच जाता कि शायद वहां कुछ मिल जाये। सोचता, आखिर जकिया भी अपना ही खून है, उससे आरजू-मिन्नत करूंगा तो जरूर कुछ-न-कुछ दे देगा। फिर उसका कोई नुकसान भी तो नहीं है। मैं उसके खाने में हिस्सा लेने नहीं चाहता था, केवल उसकी जूठन चाहता था, पर वह मेरी परछाई देखते ही गुर्राकर मुझ पर ऐसा झपटता, जैसे मैं उसका दुश्मन हूं। वह था मुझसे ताकतवर, इसलिए मैं उसका सामना न कर सकता था। वह दांतों से मुझे खूब काटता और नीचे गिराकर पेजों से खसोटता। जब मैं जोर से चिल्लाने लगता और पूंछ सिकोड़ लेता, तब कहीं जान बचती थी। उठकर ज्यों ही भागना चाहता कि डफाली कह उठता, “पंडित का भग्गू कुत्ता वह भागा! वह भागा!” इस पर मुझे बहुत ग्लानि होती थी। मैं फिर जाकर जकिया से उलझ पड़ता और इतनी मुस्तैदी देखकर देखनेवाले कहते, “वाह कल्लू! वाह! शाबास!” इससे तबीयत और भड़क जाती थी, और भी जोर लगाता, लेकिन आज मुझे भागना ही पड़ता था। तब सब तालियां बजाकर मुझ पर हंसने लगते। जोश ठंडा होने पर देखता तो लहूलुहान हो गया हूं। महीनों में जाकर कहीं घाव अच्छे होते थे। घाव अच्छा होने पर यही भी चाहता कि चलकर जकिया को पछाडूं और पंडित जी की बदनामी मिटाऊं, मगर अपनी हालत देखकर रह जाता।
एक दिन मैं जान पर खेलकर जकिया से उलझ पड़ा। वह भी पूरे जोश के साथ मुझसे लड़ने लगा। संयोग से पंडित जी भी वहां पहुंच गये। उनके पहुंचते ही और लोगों ने कहा, “कल्लू भग्गू कुत्ता है, कभी भी जकिया का सामना नहीं कर सकता।” इस पर मैंने देखा कि पंडित जी का चेहरा फीका पड़ गया है। तब तो मैंने निश्चय कर लिया कि आज चाहे जान रहे या जाये, मगर जकिया को जरूर पछाडूंगा। कुछ ऐसे जीवट से लड़ा और ऐसे दांव-पेंच खेला कि बच्चे जकिया को छठी का दूध याद आ गया। देखनेवाले कहने लगे कि भई, आज तो कल्लू ने कमाल कर दिया! ठीक है, मालिक को देखकर उसकी छाती बढ़ती है। जकिया डफाली को देख-देखकर ही इसे रोज पछाड़ता था। आज पंडित जी को देखकर कल्लू ने नीचा दिखाया। मैंने देखा – पंडित जी का चेहरा उस समय खिल उठा था, मोनो मैंने उनकी लज्जा रख ली। अब उन्होंने मेरी खुराक कुछ बढ़ा दी। उधर जकिया पर डफाली और भी तवज्जह करने लगा।
एक दिन की बात है कि माता जी डफाली के दरवाजे पर पहुंच गयीं। उस समय जकिया वहां मौजूद न था। डफाली ने माता जी की दीन दशा देखकर एक टुकड़ा फेंक दिया। ज्यों ही माता जी टुकड़ा उठाने को आगे बढीं कि जकिया पहुंच गया और माता जी पर टूट ही तो पड़ा। संयोग से वहीं पर मैं भी पहुंच गया। फिर क्या था! जकिया से जान बचाकर माता जी मुझसे भिड़ गयीं। मैं तो उन पर वार करना नहीं चाहता था, लेकिन वह पूरी ताकत से मुझ पर वार करने लगीं। उस समय मुझे बड़ी हंसी आती थी। पेट भी क्या चीज है! इसके लिए लोग अपने-पराये को भूल जाते हैं। नहीं तो अपनी सगी माता और अपना सगा भाई क्यों दुश्मन हो जाते? यह तो हम जानवरों की बातें हैं। मनुष्यों की ईश्वर जाने!