कुत्ते की कहानी – कहानी – मुंशी प्रेमचंद
मेरे पंडित जी के घर अनाज बहुत होता था। घर कच्चा था, और चूहों ने अपना अड्डा जमा लिया था। उनके उपद्रव से घरवालों का नाकों दम था। वे लोग चाहते थे कि चूहेदानी लगाकर इनका सर्वनाश कर दिया जाये। मगर पंडित जी यह कहकर टाल देते थे कि चूहे गणेश जी के वाहन है। इन्हें तकलीफ नहीं देनी चाहिए। इनके खाने से कितना अनाज कम हो जायेगा? उनका विश्वास था कि चूहे जितना गल्ला नुकसान करते हैं, उसका चौगुना श्रीगणेश जी की दया से उपज में बढ़ जाता है, इसलिए जब वह किसी को चूहेदानी लगाते देखते तो उससे पचासों बातें कहते। पंडित जी की धाक लोगों पर खूब बैठ गयी। जब कहीं देवताओं की भक्ति की चर्चा होती तो पंडित जी का नाम पहले लिया जाता था। कैसे सज्जन हैं कि इतना नुकसान सहने पर भी चूहों को नहीं मारते! नहीं तो लोग आदमी की जान तक ले लेते हैं। जब तक चूहे अनाज की लूट मचाते रहे, तब तक तो पंडित जी अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहे, लेकिन जब उनके वार कपड़े-लत्ते पर भी होने लगे तो उनके आसन डोल गये। जाड़ों के कपड़े कुछ संदूकों में रखे हुए थे, कुछ अलगनियों पर। गर्मियों में किसी ने उसका परवाह नहीं की। बरसात में जब उन्हें धूप में डालने के लिए निकाला गया तो सारे कपड़े कुतरे पड़े थे। उन्होंने लकड़ी का संदूक तक काट डाला था। पंडित जी की आंखों में खून उतर आया। चूहों ने एक-एक चीज में हजारों छेद कर दिये थे। दो-ढाई सौ रुपये पर पानी फिर गया था। अब तो पंडित जी न ठान लिया कि जैसे भी होगा, इन चूहों का सवर्नाश करके की छोड़ेगा। उसी दिन एक बिल्ली पाली और तीन-चार चूहेदानियां मंगवाईं। फिर क्या था! रोजाना चूहे फंसने लगे। मुझे भी विनोद का मसला मिल गया। यों ता मैं पूरा शाकाहारी हो गया था, क्योंकि विशेष अन्न-जल खाना-पीना पडत़ा था। मांस पर रुचि ही न होती थी; लेकिन शिकार खेलने में बडा़ मजा आता था। मजा क्यों न आता, यह तो मेरी खानदानी बात थी। जब पंडित जी चूहेदानी खोलते, उस समय कल्लू-कल्लू पुकारते। मैं कहीं पर भी होता, तीर की तरह वहां पहुंच जाता था। उस समय मैं खिलवाड़ करता था, वह देखने ही लायक होता था। चूहों को खिलाखिलाकर जान से मार डालता था, पर खाता न था। मगर भाई जकिया रोज मांस खाता। वह भी उस शिकार में शामिल हो जाता था और कभी-कभी माता जी भी पहुंच जाती थीं। उन दिनों उनका खूब पेट भरने लगा। फिर तो मां मन-ही-मन हम लोगों को आशीर्वाद देने लगीं। शायद उन्हें पिछले बच्चों की याद भी आने लगी हो। यदि वे भी जीते होते तो उनकी खूब सेवा करते। भाई साहब के जी में आता तो दो-एक चूहों को पेट में रख लेते, मगर मैं तो बाबा कालभैरव जी की शपथ खाकर कहता हूं कि खाने के लिए सूंघता भी न था। उस समय चूहों की जान लेने में हम लोगों को जरा भी दया न आती थी। यह ख्याल भी न होता था कि इनमें भी जान है। अब मैं सोचता हूं तो मालूम होता है कि बच्चे जो हम लोगों को अपने विनोद के लिए कष्ट देते थे, यह कोई निर्दयता का काम नहीं करते थे। विनोद में इन सब बातों पर ध्यान ही नहीं दिया जाता। पंडित जी बहुत खुश होते, जब हम लोग चंद मिनटों में पचासों चूहों को सदा के लिए बेहोश कर देते।