कुत्ते की कहानी – कहानी – मुंशी प्रेमचंद
जिस गड्ढे में फेंक-फेंककर मुझसे लड़के खेलते थे, उसी में गांव के सभी छोटे-बड़े नहाते-धोते थे। गड्ढा था भी बहुत गहरा। इसीलिए बारहों महीना पानी भरा रहता था। कच्चा होने पर भी उसका पानी स्वच्छ था। पंडित जी की स्त्री अपने छोटे बच्चे को रोजाना सावधान करती थीं कि खबरदार! उस गड्ढे की ओर कभी न जाना, नहीं तो डूब जाओगे। प्रायः सभी मां-बाप अपने बच्चों को ऐसी चेतावनी देते रहते, मगर लड़के कब मानने लगे? मां-बाप की नजरें बचाकर गड्ढे पर पहुंच ही जाते और तरहतरह के खेल खेलते। कोई पानी में कत्तल फेंकता, कोई मेंढकों पर निशाना लगाता, कुछ सयाने लड़के पानी में कूद जाते और तैरने का अभ्यास करते। होनहार को कौन रोक सकता है? गांव के कुछ लड़के गड्ढे में तैर रहे थे। पंडित जी का छोटा लड़का भी पहुंच गया। पहले तो वह किनारे पर ही खेलता रहा, मगर उसके जी में क्या आया कि जरा मैं भी तैरूं। आगे बढ़ा ही था कि पांव फिसल गये और डूबने लगा। सब लड़के घबराकर चिल्लाने लगे, “लड़का डूबा, लड़का डूबा!” मगर किसी की निकालने की हिम्मत न पड़ती थी। अगर कोई सयाना होता तो कुछ कोशिश भी करता। यों तो डूबते हुए को निकालने में सभी डरते हैं। डूबनेवाला बचानेवाले को इस तरह पकड़ लेता है कि दोनों डूबने लगते हैं। इस काम के लिए बहुत होशियार आदमी की जरूरत होती है। यही बात वहां भी हुई। पंडित जी का बड़ा लड़का संयोग से नहाने आ रहा था। भाई को डूबते देखा तो तुरंत कूद पड़ा। पर छोटे लड़के ने बड़े लड़के को इस प्रकार पकड़ लिया कि दोनों डूबने लगे। फिर तो लड़कों ने और भी शोर मचाया। बात की बात में गांव-भर में शोर मच गया, “रामू और श्यामू दोनों डूब रहे हैं, चलो निकालो, नहीं तो एक भी न बचेगा!” चंद मिनटों में गड्ढे पर मर्दों और औरतों की भीड़ लग गयी। पर कूदने में सब पसोपेश कर रहे थे। इतने में मैं भी वहां पहुंच गया। सारी बातें झट समझ में आ गयीं। तुरंत पानी में तीर की तरह घुसा। उस समय प्रायः दोनों लड़के चूब चुके थे। सिर्फ जरा-जरा बाल दिखाई पड़ रहे थे। मैंने दातों से उनके बाल पकड़ लिए और पलक मारते किनारे पर खींच लाया। लोग मेरा यह साहस देखकर दंग रह गये। पंडित जी उस समय किसी काम से बाहर गये थे। संयोग से वह भी उसी समय आ गये थे और आदमियों की भीड़ देखकर बाहर-ही-बाहर वहां पहुंच गये। क्षण-भर में उन्हें सब बातें ज्ञात हो गयीं। फिर तो उन्होंने मुझे उठाकर छाती से लगा लिया। पंडित जी के आने से पहले ही लोगों ने लड़कों के पेट से पानी बाहर कर दिया था। वे स्वस्थ हो गये थे। अब तो गांव-भर में मेरी खूब तारीफ होने लगी, “यह कुत्ता पूर्व-जन्म का कोई देवता है; किसी बात से चूका और कुत्ते का जन्म पा गया।” कोई कहता, “नहीं, पर इस पर भैरवनाथ का अवतार है। देवताओं की इच्छा ही तो है, जिस पर रीझ जायें।” उस दिन से पंडित जी मुझे अपनी जान से अधिक प्यार करने लगे। अभ मुझे पेट के लिए किसी दूसरे के दरवाजे पर नहीं जाना पड़ता था। उस समय जकिया भी वहां मौजूद था। उसकी मूर्खता तो देखिए, जिस समय लड़कों को निकालकर मैं बाहर आ रहा था, वह बड़े कर्कश स्वर में भौं-भौं चिल्ला रहा था। इस पर कुछ लोगों ने उसे ठेले मार कर भगा दिया। ठीक ही था, कहां तो घवराये हुए लोग लड़कों की जान बचाने की कोशिश कर रहे थे, कहां यह व्यर्थ चिल्ला रहा था! डफाली उसकी यह हरकत देखकर चिढ़ गया। चिढ़ता क्यों न? उसकी तो यह उम्मीद थी कि उसका कुत्ता कभी नाम करेगा। उसने उसे खिलाने-पिलाने में कोई कसर न रखी थी, मगर वहां पर सबके मुंह से जकिया के लिए दुरदुर निकल रहा था। उसी दिन से न जाने क्यों वह मुझसे विशेष प्रेम करने लगा। जहां देखता, उठा लेता और घंटों तक मेरी गर्दन सहलाता! उस पर उसे मैं धन्यवाद देना चाहता था, पर सिवा पूंछ हिलाने के और क्या कर सकता था! अब उसकी आंख जकिया की ओर से धीरे-धीरे फिरने लगी थी। मैं अपने भाई से वैर नहीं करना चाहता था, लेकिन जकिया मेरी जान का दुश्मन हो गया। जहां देखता, मुझसे भिड़ जाता। मजबूत था ही, मुझे हार माननी पड़ती।