कुत्ते की कहानी – कहानी – मुंशी प्रेमचंद

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अब पंडित जी जो कुछ लाते, उसमें अपने लड़कों की तरह मेरा भी हिस्सा लगाते। मैं भी हर वक्त पंडित जी के साथ-ही-साथ रहता था। वह किसी काम से बाहर जाते तो मुझे बहुत दुख होता। जब वह लौटकर आ जाते तो पूंछ हिला-हिलाकर नाचने लगता। इससे शायद वह भी खिल उठते, क्योंकि उनके चेहरे पर प्रसन्नता की एक गहरी झलक दिखाई पड़ती थी। एक दिन पंडित जी के मटर के खेत में एक गड़रिये की भेड़ें पड़ गयीं। पंडित जी ने देखा तो उसे डांट दिया। कुछ दिनों बाद गड़रिये ने फिर वही शरारत की। अब के पंडित जी ने डांट-फटकार के बाद दो-तीन थप्पड़ भी जमा दिए। मैंने समझा कि गड़रिया अब ऐसी भूल न करेगा, मगर दो-तीन दिन के बाद उसने फिर अपनी भेड़ें पंडित जी के खेत में डाल दीं। उस दिन पंडित जी को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने उसे जमीन पर पटककर लातों और घूसों से खूब मारा। मैंने भी गुस्से में आकर उसे खूब काटा, नोचा। उस दिन तो गड़रिया चला गया, दूसरे दिन से वह मेरी खोज में रहने लगा। मुझे पंडित जी के साथ देखता तो होंठ चबाकर रह जाता। मैं भी ताड़ गया था कि यह मुझे अकेला पाते ही अवश्य वार करेगा, इसलिए मैं पंडित जी का साथ कभी भूलकर भी न छोड़ता था। अब गड़रिये की भेड़ें पंडित जी के खेत में कभी न पड़ती थीं। गड़रिया अब बदला लेने पर तुला हुआ था।

एक दिन की बात सुनो – पंडित जी की ईख की खेती बहुत अच्छी थी। गांववाले अक्सर कहा करते थे कि इस साल पंडित जी सबसे बाजी मार ले जायेंगे। गड़रिये ने सोचा, “इस खेत में आग लगा दो, सारी कसर निकल जायेगी।” आधी रात के समय खेत पर पहुंच ही तो गया। बच्चू यह नहीं जानता था कि यहां पर भी मेरा ही पहरा रहता था। ज्यों ही आग की चिनगारी ईख में फेंककर उसने भागने का विचार किया कि मैंने झपटकर उसके पांव पकड़ लिए। वह अचकचाकर गिर पड़ा। क्यों न गिर पड़ता, चोरों का कलेजा ही कितना! बच्चू ने भागने की बहुत कोशिश की, मगर एक न चली। खैरियत यह थी कि खेत गांव से थोड़ी ही दूरी पर था। एकाएक ज्वाला उठी तो गांववाले चटपट पहुंच गये। मुझे गड़रिये का पैर पकड़े देखकर लोग समझ गये कि यह इसी की बदमाशी है। जो आता, गड़रिये की पूजा (पिटाई) करके ही आग बुझाने जाता। उस बदमाश की ऐसी मरम्मत हुई कि मरने को हो गया। इतने पर भी लोगों को संतोष न हुआ। सलाह हुई कि इसे थाने ले चलो, मगर पंडित जी ने उसे यों ही छोड़ दिया। लोगों से कहा, “जब तक ईश्वर न बिगाड़ेगा, आदमी कुछ नहीं कर सकता। मसल हैजाको राखे साइयां मार सकिहैं कोय।’’ गांववालों को पंडित जी के इस व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि ऐसी दशा में उसे पूरा दंड दिलाये बिना कोई भी न छो़डता। मैं तो कहता हूं कि यदि सब ईख जल गयी होती और गड़रिया पकड़ लिया जाता तो पंडित जी जीता न छोडते, मगर यहां तो दयालुता का सिक्का जमाना था। क्यों न क्षमा कर जाते!

उस दिन से पंडित जी मुझ पर और प्रेम करने लगे। सारे गांव पर मेरी धाक बंध गयी, लेकिन वह नर-पिशाच इसी फिक्र में रहता कि कब इसका अंत कर दूं। रात-दिन मेरी ही खोज में रहता, मगर ईश्वर की दया से मेरा बाल भी बांका न कर सका। आखिर उसे एक तरकीब सूझ गयी। वह जकिया को खूब खिलाने पिलाने लगा। पहले तो डफाली ने जकिया को अपने घर से प्रायः निकाल ही दिया था। कभी-कभी दूसरे कुत्तों की तरह उसे भी कौर दे देता था। बात यह थी कि एक दिन एक पुलिस का आदमी उस डफाली के दरवाजे पर रात को गश्त करने आया था। उस समय जकिया ने उसे काट खाया था। पुलिस के आदमी ने डफाली को बहुत तंग किया था, तभी से डफाली को जकिया से घृणा हो गयी थी। उसकी तो ऐसी इच्छा हो गयी थी कि जकिया दरवाजे पर भी न रहे, मगर बहुत दिनों की मुहब्बत के सबब से उसे कुछ-न-कुछ देना ही पड़ता था। जकिया ताकतवर तो बहुत था, मगर उसे भले-बुरे का ज्ञान न था। जभी चाहता, बेसुरा राग छे़ड़ देता। गुण उसमें यही था कि वह मजबूत बहुत था। क्या मजाल कि कोई दूसरे गांव का कुत्ता आ जाये! गीदड़ों की तो उसे देखते ही नानी मर जाती थी। हिरन और नीलगाएं जो पहले खेत तहस-नहस कर देते थे, अब गांव में आने का नाम न लेते। एक बंदर ने गांव में बड़ा उत्पात मचा रखा था। बच्चों के हाथ से रोटी छीन लेता, औरतों को रास्ते में रोक लेता और जो कुछ उनके पास होता, वह लिए बिना पिंड न छो़डता। लोगों को राह चलना मुश्किल हो गया था। गांव-भर की खपरैल उलट दी थी। जकिया ने उसे ऐसा झंझोड़ा कि बच्चू ने फिर सूरत ही न दिखाई। हां, तो गड़रिये ने जकिया को इसी इरादे से खिलाना-पिलाना शुरू किया कि वह मुझसे बदला ले, मगर जकिया भी छंटा हुआ था। जो हमेशा मछली और मांस का आदी था, वह भला रूखे-सूखे सत्तू पर कैसे टिक सकता? गड़रिये की आंख बचाकर भेड़ों पर हाथ साफ करता। इस पर एक दिन गड़रिये ने उसे बांधकर खूब पीटा। तब से जकिया उसके यहां से भाग गया। अब वह किसी का नहीं था। कहलाता तो था डफाली वाला कुत्ता, मगर डफाली से उसका कुछ भी संबंध न था।

अब गड़रिये ने निश्चय किया कि जैसे भी होगा, मुझे जान से मार डालेगा, चाहे उसकी जान रहे या जाये। एक दिन उक कमबख्त ने जान पर खेलकर वार कर ही तो दिया। बात यह थी कि पंडित जी मंदिर में पूजा कर रहे थे और मैं नीचे बैठा झपकी ले रहा था। पंडित जी आंख मूंदकर श्री शिवजी का ध्यान कर रहे थे। गड़रिये ने पूरी ताकत के साथ एक लाठी जमा ही दी! लाठी ऐसी घात से लगी कि मेरे मुंह से एक चीख निकल गयी। फिर मुझे कोई खबर न थी कि मैं कहां हूं। जब होश आया तो अपने को जानवरों से अस्पताल में पाया। कुछ दिनों में अच्छा होकर अस्पताल से चला आया, मगर मेरी कमर बहुत कमजोर हो गयी थी। तब-तब पूर्वी हवा चलती, जान ही निकल जाती थी। पीछे पंडित जी से पता लगा कि वह मेरी उस चीख को सुनकर पूजा छोड़ बाहर निकल आये और देखा कि गड़रिया दूसरा वार करना चाहता है। झट दौड़कर उसे पकड़ लिया और उसकी लाठे से उसे खूब पीटा। तब उसका चालान कराके छः महीने के लिए सजा करवा दी। फिर तो जेल में उसकी जो दुर्गति या सुगति हुई होगी, उसका अनुभव तो वही करेगा जो कभी जेल गया होगा। ये सब बातें पंडित जी अपने मित्रों से कहतेथे तो मैं सुनता था। उस समय से पंडित जी पर मुझे बहुत ही गर्व रहने लगा। मेरा विश्वास था कि पंडित जी के रहते मुझे किसी प्रकार का कष्ट न होगा। कभी मैं पछताता कि आदमी क्यों न हुआ?

मेरी माता जी की दशा दिन-दिन खराब होती जाती थी। भूख, चिंता, मार, इन सब कारणों ने मिलकर उन्हें पागल बना दिया। एक खंडहर में अकेली पड़ी रहतीं। मैं एक बार उन्हें देखने गया था। मुझ पर इतनी तेजी से झपटीं कि मैं भाग न जाऊं तो मुझे जरूर काट खायें। उधर से लोगों ने आना बंद कर दिया। संयोग की बात, गड़रिया उसी दिन सजा भुगतकर निकला था। एकाएक उसी दिन रास्ते में माता जी मिल गयीं और उसके बहुत बचाने पर भी काट खाया। माता जी के दांतों में इतना विष था कि दो-तीन दिनों में गड़रिया मर गया। किसी की मृत्यु पर खुश होना, चाहे वह अपना कट्टर शत्रु ही क्यों न हो, बुरी बात है, मगर मैं उछलने लगा। गड़रिया के मरने से मुझे बहुत खुशी हुई। अब मेरा कोई वैरी न था। मगर इस खुशी ने मुझे जितना हंसाया, उतना ही उस खबर ने रुलाया भी कि उसके दो-तीन दिन बाद पुलिस ने माता जी को गोली मार दी। मैं कई दिन तक दुखी रहा। भला संसार में ऐसा कौन होगा, जिसे माता के मरने का मार्मिक शोक न हो? अब जकिया के सिवा कोई मेरा सगा न रह गया था। उस समय कभी-कभी मैं सोचता – देखें हम दोनों का अंत कैसा होता है। यद्यपि उस समय मैं खाने-पीने से सुखी था और जकिया दुखी, मगर संतोष इतना ही था कि कहने को भाई तो है। कभी उसके भी दिन फिरेंगे! पहले उसने सुख भोगे, मैंने दुख झेले। अब मैं सुख भोग रहा हूं, और वह दुख। किसी के दिन बराबर नहीं जाते। जब कभी जकिया पंडित जी के दरवाजे पर आता तो मैं कभी चिढ़ता न था। वह तो डरता था कि कहीं यह बदला न ले, मगर मैं वहां से टल जाता कि वह निश्चिंत होकर खा ले। कभी-कभी मुझे अधिक भोजन मिल जाता तो मैं मुंह में रखकर जकिया के पास पहुंचा देता। वह दिखावे में तो प्रसन्न रहता, मगर दिल में मुझसे बराबर जला करता।

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