कुत्ते की कहानी – कहानी – मुंशी प्रेमचंद

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अंधेरी रात थी, पंडित जी के घर के सभी लोग कहीं रिश्तेदारी में गये थे। घर पर मैं और पंडित जी ही थे। पंडित जी तो खर्राटे की नींद ले रहे थे, मगर मुझे नींद कहां? बार-बार घर का चक्कर लगाता रहता। चोरों ने समझा – आज सन्नाटा है। उन्होंने घर के नौकर से सारा भेद ले लिया था। मैं आहट पाकर पिछवाड़े गया तो देखा कि एक दरवाजा खुला हुआ है और कुछ आदमी वहां खड़े होकर चौकन्नी आंखों से इधर-उधर देखते हुए धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं। मैं उनकी बात न सुन सकता था, क्योंकि वहां से दूर था। थोड़ी देर में देखा – कोई भीतर से थाली-लोटा, संदूक वगैरह निकाल-निकालकर बाहर के आदमियों को दे रहा है। अब तो सब बातें मेरी समझ में आ गयीं। मैं बड़े जोरों सेभौंकने लगा। इस पर चोरों ने मुझ पर ढेले फेंकने शुरू किये, मगर मुझे उन ढेलों की चिंता न थी। स्वामी का घर लुटा जा रहा है, भला यह कैसे देखा जाता! दौड़ता हुआ बरामदे में पंडित जी के पास गया और उनकी चादर दांतों से खींचने लगा। इस पर उन्होंने मुझे दो-तीन लातें जमा ही तो दीं, पर मैं बाज न आया। फिर चादर खींची और जोरजोर से भोंकने लगा। तब पंडित जी की नींद खुल गयी। अब उनको किस तरह समझाऊं कि तुम्हारा घर लूटा जा रहा है? बार-बार पिछवाड़े जाता और उनके सामने आ-आकर जोरों से भौंकने लगता। इससे मेरी यही मंशा थी कि पंडित जी पिछवाड़े चलकर देखें कि उनका घर लुटा जा रहा है और उसके बचाने का प्रयत्न करें। मेरी चुस्ती से चोरों की हिम्मत न पड़ती थी कि समान लेकर भाग निकलें। मैं रास्ता रोके हुए था। दूसरे, सवेरा होने में थोड़ी ही कसर थी, इसलिए सब माल-असबाब उसी पसवाले गढ़े में डुबोते जाते थे। उनकी मंशा शायद यही थी कि दूसरी रात में सब माल-असबाब उठा ले जायेंगे। भला गढ़े के अंदर कौन ढूंढ़ने जाता है। मुझे बार-बार गुस्सा आता था कि पंडित जी की बुद्धि पर आज पत्थर क्यों पड़ गया है? वह मेरे इशारे क्यों नहीं समझ रहे हैं? संतोष यही था कि माल अभी बाहर नहीं गया था। आखिर मुझे एक उपाय सूझ गया। पलंग के नीचे पंडित जी की लाठी पड़ी थी। उसे मैंने मुंह में उठा लिया और पिछवाड़े की तरफ बढ़ा। अब पंडित जी मेरा इशारा समझ गये। तुरंत लाठी लेकर पिछवाड़े पहुंचे तो देखते हैं कि चोर सारा मालअसबाब उठाये लिए जा रहे है। बुरी तरह घबरा उठे। उनके मुंह से केवल इतना निकला, “चोर! चोर!” चोर का नाम सुनते ही “पकड़ो! पकड़ो!… आ पहुंचे! आ पहुंचे!” की आवाजें चारों ओर से आने लगीं। दम-भर में गांव के सब लोट लाठियां ले-लेकर इकट्ठे हो गये, मगर चोरों का पता नहीं था। अब यह फिक्र हुई कि चोर क्या-क्या ले गये। पंडित जी के तो होश-हवास ही ठिकाने न थे। होश आने पर पंडित जी ने घर के अंदर जाकर देखा तो सबकुछ गायब था। सिर पर बिजली-सी गिर पड़ी। लोगों ने उन्हें संभाला और समझाने लगे, “भैया, इतना छोटा जी मत करो! रुपया-पैसा हाथ का मैला है। इसके जाने की क्या चिंता?” लेकिन पंडित जी बराबर हाय-हाय करते जाते थे। मेरी ओर कोई ताकता भी न था। मैं दौड़-दौड़कर गढ़े के पास जाता और जोरों से भौंकता। फिर आता और पंडित जी के पैरों पर मुंह रखकर पूंछ हिलाता, पर पंडित जी पैर खींच लेते थे। पैर खींच लेना तो कोई बात न थी, वह गुस्से में आकर लातें भी जमा देते थे, मगर मैं अपना काम बराबर किये जाता था। कब तक कोई इशारे को न समझेगा? सभी तरह के लोग थे। कुछ लोग पंडित जी को तसल्ली दे रहे थे, तो कुछ लोगों को हंसी उड़ाने की सूझ रही थी। कह रहे थे – इसी से कहा गया है कि अपनी कमाई में कुछ-न-कुछ दान अवश्य करना चाहिए। जो लोग सब-कुछ अपने-आप हजम करना चाहते हैं उनका यही हाल होता है। पटवारी ने सलाह दी, “पंडित जी, पुलिस को इतल्ला कर दीजिए। शायद कुछ पता लग जाये!” चौधरी बोले, “अजी, पुलिस का ढकोसला बहुत बुरा होता है। वे भी आकर कुछ-न-कुछ चूसते ही हैं। मैंनो तो इतनी उम्र में सैंकड़ो बार इतल्लाएं कीं, मगर चोरी गयी हुई चीज कभी न मिली।” पंडित जी ने दिल कड़ा कर उत्तर दिया, “हां, चौधरी तुम ठीक कहते हो। तकदीर से उठी हुई चीज फिर कहां मिलती है!” उधर तो ये बातें हो रही थीं, इधर मेरा काम जारी था। कुछ लोग मेरी हरकत देखकर कहने लगे, “देखो, पंडित जी के साथ-साथ कुत्ता भी खबरा गया है। पंडित जी समझदार होने के कारण शांत है, मगर यह बेसमझ कुत्ता बौखला उठा है।” ये बातें सुनकर मुझे उन पर हंसी आती थी। बेसमझ ये सब हैं कि मैं? घंटों से इशारे कर रहा हूं। पर किसी की समझ में बात नहीं आती, फिर भी अपने को समझदार कहते हैं। क्या कहूं? कहीं मैं भी आदमी दोता तो दिखा देता! एकाएक मुझे एक उपाय सूझ गया। मैं भीड़ को चीरता हुआ पानी में कूद पड़ा और एकदम नीचे घुसकर तह तक पहुंच गया। संयोग से एक करोटी मुंह में आ गयी। उसे लेकर बाहर निकला तो मेरी बात सबकी समझ में आ गयी। फिर क्या था! कई आदमी पानी में कूद पड़े और थोड़ी देर में सब सामान मिल गया। पंडित जी इतने खुश हुए कि मुझे बार-बार उठा-उठाकर छाती से लगाने लगे। सब यही करते थे कि कुत्ते में ऐसी समझ बहुत कम देखने में आयी है। जरूर यह पूर्व-जन्म का कोई विद्वान रहा होगा। किसी पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए इस योनि में आया है।

एक महाशय बोले, “पुराने जमाने में जानवर आदमी की तरह बातें करते थे और आदमियों की बातें समझ भी जाते थे।” इस पर चौधरी बोले, “बिलकुल सत्य कहते हो भाई! रामायण में लिखा है – एक कुत्ते ने श्रीरामचंद्रजी से अपनी कहानी कही थी। एक दिन श्रीरामचंद्र जी का दरबार लगा हुआ था, छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सब जी खोलकर अपना-अपना हाल सुना रहे थे। इतने में एक कुत्ता भी आ पहुंचा और हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया। “श्रीरामचंद्रजी ने पूछा – ‘तू क्या कहना चाहता है?’ “कुत्ते ने कहा – ‘भगवन्‌! आज मेरे जीवन का अंतिम दिन है। इसलिए उचित समझता हूं कि आपके सम्मुख आपकी प्रजा को अपने अनुभव की कुछ बातें समझा दूं, जिससे वे अपने-अपने जीवन में बहुतसी बुराइयों से बच जायें।’ “कुत्ते की यह ज्ञान से भरी बातें सुनकर सब लोग चकित हो गये। दरबार में सन्नाटा छा गया।“श्रीरामचंद्रजी बोले – ‘तुम्हारा यह विचार सराहने योग्य है। अगर सभी लोग इस तरह के ज्ञानोपदेश किया करें तो मनुष्य का उससे बड़ा उपकार हो सकता है। पहले तुम बताओ कि तुमने यह कैसे जाना कि तुम आज ही मर जाओगे?’ “कुत्ते ने उत्तर दिया – ‘महाराज, यह तो मैं नहीं बतलाना चाहता था, लेकिन जब आपने पूछा है तो मुझे बतलाना ही पडेगा। मेरा विश्वास है जो जैसा करता है, वैसा ही फल भोगता है। आप कृपा कर गुण नामक ब्राह्मण के लड़के को बुलाकर पूछिए कि उसने आज मुझ निरपराध को क्यों लाठी से मारा? अब हुक्म हो तो मैं बैठ जाऊं और बैठकर बातें करूं, क्योंकि मेरी कमर टूट गयी है और अब मैं खड़ा नहीं रह सकता। चोट ऐसी गहरी पड़ी है कि जान पड़ता है, आज ही मेरा अंत हो जायेगा।’ “थोड़ी ही देर में सिपाहियों ने अपराधी लो लाकर खड़ा कर दिया। जब उससे पूछा गया कि तुमने कुत्ते को क्यों मारा तो उसने हाथ जोड़़कर कहा – ‘दीनबंधु, मैं अपनी राह चला जा रहा था। बीच रास्ते में यह कुत्ते बैठा था। मैंने इसे हटने के लिए कई बार कहा, मगर यह हटा नहीं। इस पर मुझे गुस्सा आया और मैंने एक लाठी तानकर जमा दी।’ “श्री रामचंद्र जी ने पूछा – ‘अगर यह कुत्ता रास्ते में बैठा था तो तुम किनारे से क्यों नहीं निकल गये?’ ‘भगवन्‌, मुझसे यह भूल हुई।’ “श्रीरामचंद्रजी – ‘और गुस्सा भी आया तो लाठी इतने जोर से क्यों मारी कि इसकी कमर टूट गयी?’ ‘महाराज, मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूं। प्रभु जी जो दंड उचित समझें, दें।’ “श्रीरामचंद्रजी ने कुत्ते से पूछा – ‘तू इसे क्या दंड देना चाहता है?’ “कुत्ते ने जवाब दिया – ‘न्याय जो दंड दिलाये, वह दिया जाये।’ “श्रीरामचंद्रजी – ‘हम उसका फैसला तुम्हारे ऊपर छोड़ते हैं।’ “कुत्ता – ‘तो इसे एक हाथी पर बिठाकर घर भेज दिया जाये और नगर के राजमंदिर का महंत बना दिया जाये।’ “यह सुनकर सब लोग अचंभे में आ गये। यह दंड है या पुरस्कार? श्रीरामंच्दरजी भी यह रहस्य न समझ सके। पूछा – ‘यह क्या बात है कि जिसने तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार किया, उसे तुम यह पुरस्कार दे रहे हो?’ “कुत्ता – ‘भगवन्‌, इसे पुरस्कार न समझिए, यह भयानक दंड है। यह ब्राह्मण-बालक अच्छे आचरण का होता तो देवता हो जाता, मगर महंत होने पर यह कुत्ता होगा।’ “श्रीरामचंद्रजी – ‘यह क्यों?’ “कुत्ता – ‘यही तो मुझ पर बीत चुकी है। वही कथा कहने के लिए तो मैं आपकी सेवा में आया हूं। इसके पहले मेरा जन्म भी ब्राह्मणकुल में हुआ था। मेरे पिता भी एक मंदिर के महंत थे। जिस दिन कोई धनी-मानी आदमी मंदिर में आनेवाला होता, उस दिन तो ठाकुर जी खूब सजाये जाते, मगर जिस दिन कोई आनेवाला न होता, उस दिन मंदिर का दरवाजा भी न खुलता। एक दिन ऐसा ही कोई रईस, ठाकुर जी के दर्शन को आया था। पिताजी ने तरह-तरह की मिठाइयां बनाकर ठाकुर जी को भोग लगाया था। जब वह घर आये तो मैं रो रहा था। माता जी दूध और चावल गर्म कर रही थीं। पिता जी को देखते ही मैं मचल गया कि इन्हीं के हाथों दूध-भात खाऊंगा। पिता जी मुझे बहुत प्यार करते थे। मुझे तुरंत गोद में उठा लिया और खिलाने लगे। उस समय वह ठाकुर जी की पूजा करके आये थे, इसलिए उनके नाखूनों में घी लगा हुआ था। गर्म दूध में पिघलकर घी उसमें मिल गया। मुझे क्या मालूम था कि जरा-सा घी मिल जाने के कारण मुझे इतना कठोर दंड मिलेगा। मैंने वेद पढ़ा और पढ़ाया, यज्ञ कराये और बड़ी निष्ठा से अपने धर्म का पालन करता रहा, मगर जब यमराज के पास पहुंचा तो उन्होंने कहा कि एक तो यह पाखंडी महंत का लड़का है, दूसरे, इसने उसका कमाया हुआ अन्न खाया है, तीसरे, ठाकुर जी के चढ़ाये हुए घी को जूठा कर दिया, इसलिए इसे कुत्ते की योनि में भेजा जाये। मैं बहुत रोया, मगर किसी ने मेरी न सुनी। मैं वही कुत्ता हूं। अतः आप लोग समझ सकते हैं कि मैंने दंड दिया या पुरस्कार।’ “इतना कहकर कुत्ता बेहोश हो गया और ऐसा गिरा कि फिर न उठा।” सवेरा हो रहा था, सब लोगों ने अपने-अपने घर की राह ली। कुत्ते की वह कथा सुनकर मुझे अपनी दशा पर बहुत दुख हुआ। एक समय वह था कि पशुओं के साथ भी न्याय किया जाता था। एक समय यह है कि पशुओं की जान का कोई मूल्य ही नहीं। इसके साथ ही यह संतोष भी हुआ कि पशु होने पर भी मैं ऐसे धूर्त महंतों से तो अच्छा ही हूं। पंडित जी उस दिन से मुझसे और भी स्नेह करने लगे। किसी से भेंट होती तो मेरी ही चर्चा करने लगते – यह कुत्ता नहीं, मेरे पूर्वजन्म की संतान है।

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