कुत्ते की कहानी – कहानी – मुंशी प्रेमचंद

0

उन्हीं दिनों गांव में कई जंगली सूअर आ गये। उनके उत्पात से सारे गांव में हाहाकार मच उठा। जिस खेत में वे घुस जाते, उसे बरबाद ही करके छोड़ते। किसमें इतनी हिम्मत थी कि उनका सामना करता? शामही से रास्ता बंद हो जाता था। मेरे जी में तो यह उमंग आती थी कि एक बार जान पर खेलकर उन दुष्टों पर झपट पडूं, पर मेरी कमर अभी अच्छी न हुई थी। मैं भला उन भयंकर जंतुओं से क्या भिड़ता? लाचार था। हां, जकिया खूब मोटा-ताजा था, वह हिम्मत करता तो एकाध को मारकर ही छोड़ता, पर वह एक ही कायर था। सूअरों की सूरत देखते ही कोसों भागता और जब समझ जाता कि यहां तक सूअर न आ सकेंगे तो गला फाड़-फाड़कर चिल्लाता। सबसे बड़ा खेद तो यह था कि गांव में सैंकड़ों आदमी थे, पर किसी में इतना साहस नहीं कि उन्हें ललकारे। कुत्तों को मारने में तो सभी शेर थे, पर सूअरों के सामने सब-के-सब बिल्ली बने हुए थे। आखिर एक दिन लोगों ने थाने में जाकर फरियाद की। थाने का सबसे बड़ा अफसर अच्छा शिकारी था। उसे खबर मिली तो एक दिन कई कुत्ते लेकर गांव आ पहुंचा। गांव के सब आदमी तमाशा देखने के लिए जमा हो गये। पंडित जी भी मुझे अपने साथ लेकर चले। उनका लड़का भी चलने को तैयार हुआ, पर पंडित जी ने उसे साथ ले चलना मंजूर न किया। बोले, “वहां क्या मिठाई बंट रही है कि जाकर ले लोगे? कहीं सूअरों के सामने आ गये तो प्राण न बचेंगे। मैं तो गांव का मुखिया ठहरा, मजबूर हूं, तुम जान-बूझककर क्यों अपनी जान जोखिम में डालते हो?” यह बात सुनकर लड़का सहम उठा और साथ चलने का नाम न लिया।

जब मैं साहब के समीप पहुंचा तो पहले-पहल मेरी निगाह उन कुत्तों पर पड़ी, जो साहब के साथ आये हुए थे। वे सब एक गाड़ी पर बैठे हुए थे, जिसे लोग मोटर कहते थे। अपने उन भाग्यवान भाइयों को देखकर मैं गर्व से फूल उठा। मेरी जाति में भी ऐसे लोग हैं, जो इतने बड़े अफसर के साथ मोटर में बैठते हैं। सब-के-सब किसने साफ-सुथरे थे! यहां तो वर्षों से नहाने की नौबत नहीं आयी थी। बालों में हजारों किलनियां भरी हुई थीं। मैं तो अपने भाइयों को देखकर आनंद से फूला न समाता था, और मूर्ख जकिया उन्हें देखदेखकर ऐसा भों-भों कर रहा था, मानो उसके लिए और कोई काम ही न था। गांव के लोग बराबर मना करते, डांटते, पत्थर मारते, पर वह किसी तरह चुप न होता था। मालूम नहीं, उसके मन में क्या बात थी। क्या वह इतना भी नहीं समझता था कि ये लोग गांव का अहित करने नहीं आये हैं? नहीं तो क्यां गांव में आदमी उन्हें मार न भगाते? इसके सिवा और क्या कहा जाये कि उसकी मूर्खता थी। मैंने अपनी जाति में यह बहुत बड़ा ऐब देखा है कि एक-दूसरे दो देखकर ऐसा काट खाने को दौड़ते हैं, गोया उनके जानी दुश्मन हों। कभी-कभी अपने उजड्ड भाइयों को देखकर मुझे क्रोध आ जाता है, पर मैं जब्त कर लेता हूं। मैंने पशुओं को देखा है ऐसे जो आपस में प्यार से मिलते हैं, एक-साथ सोते हैं, कोई चूं तक नहीं करता। मेरी जाति में यह बुराई कहां से आ गयी कुछ समझ में नहीं आता। अनुमान से यह कह सकता हूं कि यह बुराई हमने आदमियों से ही सीखी है। आदमियों ही में यह दस्तूर है कि भाईसे भाई लड़ता है, बाप बेटे से, भाई बहन से। भाई एक-दूसरे की गर्दन तक काट डालते हैं, बेटा बाप के खून का प्यासा हो जाता है, दोस्त दोस्त का गला काटता है, नौकर मालिक को धोखा देता है। हम तो आदमियों के ही सेवक हैं, उन्हीं के साथ रहते हैं। उनकी देखा-देखी अगर यह बुराई हममें आ गयी तो अचरज की कौन सी बात है? कम-से-कम हममें इतना गुण तो है कि अपने स्वामी के लिए प्राण तक देने को तैयार रहते हैं। जहां उसका पसीना गिरे, वहां अपना खून तक बहा देते हैं। आदमियों में तो इतना भी नहीं। आखिर ये साहब के कुत्ते भी तो कुत्ते ही हैं। वे क्यों नहीं भौंकते? क्यों इतने सभ्य और गंभीर हैं? इसका कारण यही है कि जिसके साथ वे रहते हैं, उनमें इतनी फूट और भेद नहीं है। मुझे तो वे सब देवताओं-से लगते थे। उनके मुख पर कितनी प्रतिभा थी, कितनी शराफत थी!

साहब बहादुर अपने कुत्तों को साथ लिए वहां पहुंचे, जहां सूअरों का अड्डा था। वहां पहुंचकर उन्होंने सीटी बजाई और सभी कुत्ते चौकन्ने हो गये। उनकी आंखें चमकने लगीं, नथुने फड़कने लगे, छातियां फूल उठीं, मानो सब-के-सब साहब का इशारा पाने के लिए अधीर हो रहे थे। उनका उत्साह अब उनके रोके न रुकता था। सूअरों ने भी शायद समझ लिया था कि आज कुशल नहीं। एक भी बाहर न निकला। जब गांववालों ने ईख के खेतों में घुस-घुसकर शोर मचाना शुरू किया तो एक सूअर बाहर निकला। यह जमघट देखकर वहकुछ घबरा गया। शायद देख रहा था कि किसी तरफ से भाग निकलने का मौका है या नहीं। एकाएक साहब के कुत्ते उस पर टूट ही पड़े! देखते-देखते सूअर का काम तमाम हो गया। उनकी यह बहादुरी देखकर लोग वाह-वाह करने लगे। मेरे मुंह से भी निकल गया – शाबास भाइयों! सच्चे मर्द तुम्हीं हो। अब मेरे दिल में भी उमंग उठी। सोचा – एक-न-एक दिन मरना तो है ही। आज कुछ कर दिखाना चाहिए। आपस में लड़कर या आदमियों के डंडे खाकर मर जाने में कौन बहादुरी है? मैदान में मर भी जाऊंगा तो नाम तो रह जायेगा! इन कुत्तों को भी मालूम हो जाये कि इस गांव में कोई वीर है। इतने में एक दूसरा सूअर सामने आता दिखाई दिया। विलायती कुत्ते दौड़े। साथ ही मैं भी चला। वे सब चाहते थे कि पहले हम शिकार तक पहुंचे, मैं चाहता था मैं पहूंचुं। हम सभी जी तोड़कर दौड़े, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि सूअर पर पहला वार मेरा ही हुआ, शेष सब कुत्ते पीछे रह गये। अगर सूअर डटकर खड़ा हो जाता तो शायद मुझे भागना ही पड़ता, मगर वह हम लोगों को देखकर कुछ ऐसा घबराया कि सीधा भागा। फिर क्या था! हमने उसे पीछे से नोचना शुरू कर दिया। सबके-सब कुछ इस तरह चिपटे कि उसे मारकर ही छोड़ा। अब लोगों को भी मालूम हुआ कि मुझमें भी जीवट है। साहब भी खुश हुए। उन्होंने मुझे बुलाकर मेरा सिर थपथपाया। पंडित जी भी साहब के पास ही खड़े थे।मेरा सम्मान देखकर खिल उठे। साहब ने पूछा, “वेल, यह किसका कुत्ता है?” पंडित जी ने हाथ जोड़कर कहा, “हुजूर, यह मेरे ही यहां रहता है।” साहब-“आपका कुत्ता बड़ा बहादुर है?” पंडित जी ने कहा, “सरकार का इकबाल है।” बात पूरी भी न निकल पायी थी एकाएक तीसरा सूअर निकला और साहब पर झपटा। साहब के हाथ-पांव फूल गये। यदि एक क्षण की और देरी होती तो सूअर उन्हें जरूर मार डालता। उनके हाथ में बंदूत तो थी, पर वह ऐसे घबरा गये थे कि उसे चला न सकते थे। मैंने देखा कि मामला नाजुक है, अन्य कुत्ते दूर थे, मैं वहां अकेला ही खड़ा था। सूअर से भिड़ना जान-जोखिम था, पर साहब की प्राण-रक्षा करना जरूरी था। मैंने पीछे से लपककर सूअर की टांग पकड़ ली। उसका पीछे फिरना था कि साहब संभल गये और बंदूक चलाई। सूअर तो गिर पड़ा, लेकिन मुझे बुरी तरह घायल कर गया। घंटों होश न रहा कि कहां हूं। जब होश आया तो देखा कि मैं रुई के गद्दे पर लेटा हुआ हूं और दो-तीन आदमी मेरे घावों को धो रहे हैं।

Leave A Reply