कुत्ते की कहानी – कहानी – मुंशी प्रेमचंद
साहब के बंगले पर मुझे ऐसी-ऐसी चीजें खाने को मिलने लगीं, जिनका ख्याल मुझे स्वप्न में भी न था। पहले कभी-कभी सौभाग्य से कोई हड्डी मिल जाती थी, अब दोनों वक्त ताजा मांस खाने को मिलता। कभी-कभी दूध भी मिल जाता। खानसामा रोज साबुन लगाकर नहलाता। पहले तो मुझे साबुन का नाम भी नहीं मालूम था, क्योंकि पंडित जी के यहां साबुन लगाने का रिवाज न था। अब जब साहब नौकर से कहते – ‘कल्लू को सोप से नहलाओ’ तो वह कोई टिकिया-सी चीज लेकर मेरे गीले बदन पर रगड़ता। उस वक्त मेरे बदन से सफेद फेन निकलने लगता था, ठीक वैसा ही जैसा दूध का फेन होता है। उस फेन से ऐसी खुशबू निकलती थी कि जी खुश हो जाता था। साहब शाम के वक्त मुझे मोटर पर बिठाकर हवा खिलाने ले जाते। मेम साहब भी साथ होतीं। उस वक्त उनकी बात तो मेरी समझ में न आती, लेकिन बार-बार कल्लू का नाम सुनकर समझ जाता कि मेरी ही चर्चा हो रही है। मेम साहब कभी कभी मुझे गोद में उठा लेतीं और मेरा मुंह चूमतीं। उस समय मुझे कितना आनंद मिलता था, कह नहीं सकता। मैं भी पूंछ हिलाता और उनकी गरदन से लिपट जाता। अगर वह मेरी बोली समझ सकतीं तो उन्हें मालूम हो जाता कि हम लोग प्यार का जवाब देने में आदमी से कम नहीं हैं। कुछ दिन मुझे पंडित जी की याद बराबर सताती रही, लेकिन धीरे धीरे सारी पिछली बातें भूल गयी। सुख में दुख की बातें किसे याद रहती हैं!
एक दिन शाम के वक्त हम लोग सैर करने जा रहे थे तो क्या देखता हूं कि बेचारे पंडित जी चले आ रहे हैं। पंडित जी को देखते ही मुझे पिछले दिन याद आ यगे, मोटर से कूद पड़ा और उनके पैर पर मुंह रखकर पूंछ हिलाने लगा। पंडित जी ने मेरे सिर पर हाथ फेरा तो मैंने देखा कि उनकी आंखें डबडबा आयी हैं। उनके मुंह पर धूल जमी हुई थी, होंठ सूख गये थे और पैरों पर मानों गर्द जमी हुई थी। कपडे मैले हो गये थे। मुझे उन पर दया आ रही थी। साहब ने पूछा, “वेल पंडित, हैं तो अच्छी तरह?” पंडित, “सरकार की दया है!” साहब, “क्या काम है?” पंडित, “हजूर, अपने कल्लू को देखने आया हूं। सरकार, क्या कहूं, जब से यह चला आया है, मेरे दुर्दिन आ गये। एक क्षण के लिए भी इसकी सुध नहीं भूलती। इसकी जगह खाली देखकर रोया करता हूं। सरकार, यह मेरे घर का रक्षक था। मुझ पर दया कीजिए।” साहब, “तो क्या चाहता है?” पंडित, “यही चाहता हूं कि सरकार कल्लू को अब मुझे दे दें। परमात्मा आपका कल्याण करेगा। इसके बिन मैं कहीं का नहीं रहूंगा।” साहब, “ओ पंडित, तुम बड़ा मक्कर करता है। हम यह कुत्ता तुमको नहीं दे सकता। इसके बदले में मेरा कोई विलायती कुत्ता ले जाओ।” मैं इस समय बड़ी दुविधा में था। पंडित जी का प्रेम देखखर इच्छा थी कि इन्हीं के साथ चलूं, पर यहां के सुखों की याद करके जी कुछ हिचक जाता था। साहब ने नहीं कर दी तो पंडित जी निराश होकर बोले, “जैसी सरकार की मर्जी। जब कल्लू ही नहीं हैं तो विलायती कुत्ता लेकर मैं क्या करूंगा?” यह कहकर पंडित जी रो पड़े। उस समय मैंने निश्चय किया कि यहां रहते हुए भी मैं पंडित जी के घर की रक्षा करने के लिए रोज चला जाया करूंगा। यहां कुत्तों की क्या कमी! साहब ने कहा, “हम जानता है कि तुम इस कुत्ता को बहुत प्यार करता है और हम तुमको देता, लेकिन हम बहुत जल्द अपने देश जानेवाला है। हां, तुम इसका जो दाम मांगो वह हम दे सकता है।” पंडित जी ने इसका जवाब कुछ न दिया। साहब को सलाम किया और लौट पड़े। एकाएक उन्हें कोई बात याद आ गयी। लौटकर बोले, “सरकार, विलायत से कब लौटेंगे?” साहब, “ठीक नहीं कह सकता, मगर जब हम आयेगा तो तुमको इतल्ला देगा।” अगर साहब ने मेरे विलायत जाने की बात न कही होती तो मैं पंडित जी के साथ जरूर चला जाता। उनका दुख मुझसे देखा न जाता था। पंडितजी ने एक बार मुझे प्रेम-भरी आंखों से देखा और चल पड़े। अब मुझसे न रहा गया। मेम साहब के प्रेम, विलायत की सैर, अच्छा-अच्छा भोजन, सब मेरी आंखों में तुच्छ जान पड़े। मन ने कहा, “तू कितना बेवफा है। जिसने तुझे बचपन से पाला, ब्राह्मण होकर भी जिसने तुझे गोद में खिलाया, जिसने कभी डांटा तक नहीं, उसे तू भोग-विलास के पीछए छोड़ रहा है?” फिर मुझे कुछ सुध न रही। मैं बरामदे से कूदकर पंडित जी के पीछे चल पड़ा। मगर बीस कदम भी न गया हूंगा कि खानसामा ने आकर मुझे पकड़ लिया और मेरे गले में जंजीर डाल दी। उस समय मुझे इतना क्रोध आया कि मैं खानसामा को काटने लपका, लेकिन गले में जंजीर पड़ी थी, क्या कर सकता था! पंडित जी की ओर लाचारी की निगाह से देखने लगा। पंडितजी भी बार-बार पीछे मुड़-मुड़कर देखते जाते थे। यहां तक कि आंखों से ओझल हो गये। उस दिन मैंने भोजन न किया। बार-बार पंडित जी की याद आती रही।