कुत्ते की कहानी – कहानी – मुंशी प्रेमचंद
यहां कुछ दिन और रहने के बाद साहब अपनी मेम के साथ अपने देश चले। मुझे भी साथ ले लिया। रास्ते में क्या-क्या देखा, कहां-कहां ठहरा, कैसे-कैसे आदमियों से भेंट हुई, यह सब बातें कहने लगूं तो बड़ी देर होगी। लगभग एक महीने तक जहाज पर रहा। यह लकड़ी का एक बड़ा ऊंचा मकान था, जो पानी पर तैरता चला जाता था। पहले जब जहाज पर सवार हुआ तो मुझे डर लगा। जहां तक निगाह जाती थी, ऊपर नीला आकाश दिखाई देता था, नीचे नीला पानी और उसमें यह लकड़ी का घर बिल्कुल ऐसा ही मालूम होता था, जैसे आकाश में कोई पतंग उड़ता जाता हो। कई दिनों के बाद हम एक ऐसे देश में पहुंचे, जहां के आदमी लंबे-लंबे कुरते पहने हुए थे और औरतें सिर से पांव तक एक उजले गिलाफ में लिपटी हुई चली जाती थीं। केवल आंखों की जगह बनी हुई थी। जहाज पर बैठे मुझे बार-बार जकिया की याद आने लगी। कहीं वह भी मेरे साथ होता तो कितने आराम से कटती! न जाने उस बेचारे पर क्या बीत रही होगी। मगर अच्छा हुआ कि वह मेरे साथ न था, क्योंकि यहां उससे एक क्षण भी न बैठा जाता। जहाज पर हमारे गांव की तरह का एक आदमी भी न था। सब-के-सब हमारे साहब ही की तरह थे।
एक दिन की बात सुनिए – रात का समय था, मैं फर्श पर लेटा हुआ था कि एकाएक मुझे ऐसा मालूम हुआ, कमरे में कोई गा रहा है। वहां कोई आदमी न था। मैं चौंककर उठ बैठा और इधर-उधर देखने लगा, पर कोई न दिखाई दिया। अब मुझसे चुप न रहा गया। जोर-जोर से भोंकने लगा। मेम साहब और साहब दोनों मेरा भौंकना सुनकर जाग पड़े और मुझे चुप करने की कोशिश करने लगे। उन्हें देखकर मेरी शंका दूर हुई। लेकिन अब भी मेरी समझ में यह बात न आयी कि कौन गा रहा था। इसी तरह एक दिन दूसरी घटना हो गयी। जब शाम होती थी, सब कमरों में आप-ही-आप रोशनी हो जाती थी। दीवार में एक गोलसी डिबिया बनी हुई थी, उस डिबिया में एक पीतल की घुंडी थी। कभी साहब और कभी मेम साहब उस घुंडी को छू देते थे। बस, कमरा जगमगा उठता था। मुझे यह देखकर बड़ा अचंभा होता था। मैं सोचता, क्या मैं भी घूंडी छू दूं तो इसी तरह रोशनी हो जायेगी? अगर कहीं मैं रोशनी कर सकूं तो सब लोग कितने खुश होंगे। मैं घुंडी तक पहुंचूं कैसे? वह बहुत ऊंचाई पर थी। आखिर एक दिन मैंने उसको छूने की एक हिकमत निकाली। मैं दोनों पैरौं पर खड़ा होकर एक पांव से उस घुंडी को छुआ। छूना था कि ऐसा मालूम हुआ, मेरे पांव में आग की चिनगारी लग गयी और सारी देह में दौड़ गयी। मैं कुर्सी से नीचे गिर पड़ा और चिल्लाता हुआ भागा। थोड़ी देर के बाद जब जरा चित्त शांत हुआ तो मैं सोचने लगा कि इस घुंडी में जरूर कोई-न-कोई जादू है। साहब या मेम साहब छुएंगे, तो उन्हें भी ऐसी चोट लगेगी। मैंने निश्चय किया, उन्हें किसी तरह न छूने दूंगा। जब अंधेरा हो गया और साहब घुंडी की तरफ चले तो मैं उनके सामने खड़ा हो गया। वह मुझे हटाकर घुंडी के पास बार-बार जाते थे और मैं बार-बार उनका रास्ता रोक लेता था। आखिर साहब ने मुझे पकड़कर बांध दिया और घुंडी दबा दी। कमरे में उजाला हो गया। उन्हें जरा भी चोट न लगी।
कई दिनों के बाद एक दिन बादल घिर आये और आंधी चलने लगी। जरा देर में सारा आकाश लाल हो गया और आंधी का जोर इतना बढ़ा कि समुद्र की लहरें बांसों उछलने लगीं। हमारा जहाज लहरों पर इस तरह तले-ऊपर हो रहा था, जैसे कोई शराबी आदमी लड़खड़ाता हुआ चलता है। जैसे शराबी कभी गिरने-गिरने को हो जाता है, उसी तरह जहाज कभी-कभी इस तरह करवट लेता था कि शंका होती थी कि अब उलट जायेगा। सभी आदमी घबराये हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे। बिजनी इतनी जोर से तड़पती थी कि मालूम होता था कि हमारे सिर पर आ गयी। बड़ा भयंकर दृश्य था। ऐसी आंधी मेरे जीवन में एक बार आयी थी। सैंकडों मकान गिरने से हजारों जानवर मर गये थे। जहां-तहां हजारों उखड़े हुए पेड़ मिलते थे, पर समुद्री आंधी उस आंधी से कहीं प्रचंड़ थी। अब तक तो जहाज में उजाला था, सहसा सब दीपक बुझ गये और चारों ओर अंधकार छा गया, ठीक सावन-भादों की अंधेरी रात के समान। चारों ओर घबराहट थी। कोई ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था। स्त्रियां अपने बालकों को छाती से लगाये दुबकी-सिमटी खड़ी थीं। मुझे उस अंधेरे में उनकी दशा साफ नजर आती थी। अवश्य ही कोई भारी संकट आनेवाला था। एकाएक जहाज किसी चीज से टकराया और भयंकर शब्द हुआ। वह नीचे बैठा जा रहा था। मेरे साहब और मेम दोनों एक-दूसरे से मिलकर रो रहे थे। अब मैं समझ गया कि जहाज डूबा जा रहा है। ये सब आदमी जरा देर में समुद्र के नीचे पहुंच जायेंगे। समुद्र जहाज की छाती पर चढ़ बैठेगा। शायद यह जहाज की गुस्ताखी का बदला ले रहा है। जहाज के कान होते तो मैं कहता – तुम अपनी विजय पर कितना घमंड़ कर रहे थे! कैसा घमंड़ टूट गया! अपने साथ इतने आदमियों को ले डूबे! अपने साहब और मेम के लिए मेरा कलेजा फटा जा रहा था। कैसे उन्हें बचाऊं? अगर दोनों जनों को पीठ पर बैठा सकता तो बिठाकर समुद्र में कूद पड़ता! कहीं तो जा पहुंचता। क्या उस पहाड़ पर, जिसने जहाज का घमंड़ तोड़ा था, हमें आश्रय न मिलेगा? लेकिन क्या मैं उन दोनों को पकड़कर उठा न सकता था? मैं अपने स्वामी को ढाढ़स देना चाहता था। उनके पास जाकर कूं-कूं करता, पूंछ हिलाता, पर उस घबराहट में उन लोगों की समझ में मेरी बात न आती थी। प्रतिक्षण जहाज नीचे चला जा रहा था। स्त्रियों और बच्चों की चीख-पुकार सुन-सुन मेरे दिल के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते थे। पानी इतने जोर से गिर रहा था, मानो समुद्र आकाश पर चढ़कर वहां से जहाज पर गोले बरसा रहा हो। ईश्वर! यह क्या? जहाज समुद्र के अंदर चला गया, और मैं पानी में बहा जा रहा था। मेरे साहब और मेम का कहीं पता नहीं। कोई कहीं बहा जाता था, कोई कहीं। मैं कितनी दूर बहा चला गया, कह नहीं सकता। साहब और मेम को याद करके मुझे रोना आ रहा था। सोचता, मुझे उस वक्त भी वह मिल जाते तो उन्हें बचाने की कोशिश करता।
आखिर भगवान ने मेरी विनती सुन ली। बिजली चमकी तो मैंने देखा कि एक मर्द और एक औरत एक-दूसरे से लिपटे हुए, एक तरफ बहे जा रहे हैं। मैं जोर मारकर उनके समीप जा पहुंचा। देखा तो वह मेरे साहब और मेम थे। उस वक्त बदन में न मालूम कितना बल आ गया! मैं तो कभी बलवान न था। मैंने साहब का हाथ मुंह में ले लिया और हवा के रुख पर चला। दिल में ठान लिया कि जब तक हम रहेगा, इन्हें न छोडूंगा। साहब और मेम दोनों बेहोश थे, मगर जान बाकी थी। उनकी देह गर्म थी। ईश्वर से मनाता था कि किसी तरह दिन निकले। न जाने कितनी बड़ी रात थी! उस घोर अंधकार में क्या पता चलता! लहरों पर मैं यों थपेड़े खाता, जैसे आंधी में कोई पत्ती। कभी तो बहुत नीचे, कभी ऊपर, कभी एक रेले में दस हाथ आगे, तो दूसरे रेले में पचासों गज पीछे! भला इस तूफ़ान के मुकाबले में मैं क्या करता! मेरी बिसात ही क्या! तिस पर इस छोटी-सी देह में जान का कहीं पता नहीं। मुझे खुद भय हो रहा था कि कहीं डूब न जाऊं। वह रात पहाड़ हो गयी। ऐसा जान पड़ता था कि सूरज भी मारे डर के कहीं मुंह छिपाए पड़ा है। देह इतनी बेदम होती जाती थी कि जान पड़ता था, अब प्राण न बचेंगे। अगर साहब और मेम का ख्याल न होता तो मैं अपने को लहरों की दया पर छोड़ देता और लहरें एक मिनट में मुझे निगल जातीं। सबसे ज्यादा भय जल-जंतुओं का था। प्राण जैसे आंखों में थे। क्षण-क्षण पर मालूम होता था, अब मरे!
कह नहीं सकता, यह दशा कितनी देर रही। कम-से-कम चार-पांच घंटे जरूर रही होगी। आखिर हवा का जोर कम होने लगा। लहरों के थपेड़े भी कुछ कम हुए और कुछ-कुछ प्रकाश होने लगा। मेरी हिम्मत बंध गयी। आकाश पर बादल भी कुछ छंटने लगे थे। कुछ दूरी पर भेड़ों का झुंड दिखाई दिया। जरूर कोई टापू है। मेरा दिल खुशी से उछलने लगा। मैं उन्हीं भेड़ों की ओर चला। अब मैंने देखा कि साहब और मेम एक रेशमी चादर से बंधे हुए हैं। इसी से अब तक लिपटे हुए थे। एकाएक मुझे एक छोटी-सी नाव दिखाई दी। उस पर दो-तीन भयानक, काली, जंगली सूरतवाले आदमी बैठे हुए थे। उनका रंग कोयले की तरह काला था। मुंह लाल रंग से रंगे हुए थे। उनके सिर पर पत्तियों के ऊंचे टोप थे। वे केवल चमड़े के जांघिए पहने हुए थे। उनके पास एक-एक भाला था। मैं उन्हें देखकर डर गया और उस वक्त भी भौंक उठा। हम लोगों को देखते ही वे हमारी तरफ लपके और हम तीनों को अपनी डोंगी में बिठा लिया। मैं मारे डर से सूखा जाता था, पर करता क्या! अगर डोंगी में न बैठता तो घंटे-आधे घंटे में डूबकर मर जाता; क्योंकि मेरे हाथ-पांव में ताकत न थी। नाव के एक कोने में खड़ा होकर थर-थर कांपने लगा, फिर भी पूंछ हिलाता जाता था कि वे सब मुझे भालों से मार न डालें। ऐसे काले भयंकर आदमी मैंने कहीं न देखे थे। उन लोगों ने डोंगी में बिठाकर पेड़ों के झुंड की तरफ नाव चलाई। जरूर वहां आदमी रहते होंगे।
कोई घंटे भर में डोंगी वहां पहुंच गयी। समुद्र के किनारे एक ऊंचा पहाड़ था। उसके ऊपर के पेड़ नजर आते थे। पहाड़ के नीचे एक जगह नाव रुकी। उन्होंने उसे एक पेड़ से बांध दिया, और साहब और मेम को उतारकर जमीन पर ले गये। उन्हें देखते ही वैसी ही सूरतों की कई औरतें निकल आयीं, और सभी ने खुश होकर चिल्लाना शुरू किया। फिर साहब और मेम को उठाता और गांव में चले। कुछ ऊंचाई पर चढ़कर कई झोपडियां बनी हुई थीं। यही उनका गांव था। हम ज्यों ही वहां पहुंचे, सैंकड़ों आदमियों ने मुझे घेर लिया, और मेम और साहब के कंधे पकड़कर हिलाने लगे। कोई उनकी नाक दबाता था, कोई उनकी छाती पर सवार होकर घुटनों से कुचलता था। मैं डर के मारे दुबका खड़ा था। आवाज निकालने की हिम्मत न पड़ती थी। कहीं ये सब साहब-मेम को मार तो नहीं रहे हैं? मगर कोई आधे घंटे के हिलाने-डुलाने के बाद दोनों आदमी होश में आये। उनकी आंखें खुल गयीं। हाथ-पांव हिलाने लगे, पर अभी उठ न सके थे। अब मैं अपनी खुशी को न दबा सका। उनके पास आकर धीरे-धीरे भौंकने लगा। उन काले आदमियों ने अब नाचनागाना शुरू किया। मालूम नहीं, वे क्यों इतने खुश थे। उनका नाच भी कितना भद्दा था! उनकी उछल-कूद देखकर मुझे बड़ी हंसी आती थी। लेकिन मैं बहुत देर तक खुश न रह सका। ज्यों ही साहब और मेम बातें करने लगे, उन काले आदमियों ने उन्हें एक कोठरी में कैद कर दिया। कैद ही करना था तो समुद्र में क्यों न डूब जाने दिया? इन दिनों में हम तीनों ने अन्न के दाने की सूरत तक न देखी थी। भूख के मारे पेट कुलबुला रहा था। बेचारे मेम और साहब का भी यही हाल होगा। यह सब उनको खाने-पीने को देंगे या उस काल-कोठरी में बंद करके मार डालेंगे?
मेरे लिए तो वहां भोजन की कमी न थी। इधर-उधर मांस की बोटियां पड़ी हुई थीं। हड्डियों का तो ढेर लगा हुआ था। जंगली आदमी मांस ही झाते थे। मैंने वहां कहीं खेत नहीं देखे। एक पेड़ के नीचे मांस का एक टुकड़ा देखकर जी ललचाया कि खा लूं, पर फिर यह खयाल आया कि साहब और मेम कभी के भूखे पड़े होंगे। और मैं अपना पेट भरूं, यह नीचता की बात है। धीरे-धीरे दिन बीतने लगा। यहां बहुत गर्मी न थी। साहब लोग जहां कैद थे, उसी झोंपड़ी के सामने मैं एक पेड़ के नीचे बैठा देखता रहा कि ये लोग उनके कैसा बर्ताव करते है। कुछ खाने को देते हैं या नहीं। दोपहर हुई; शाम हो गयी। मगर झोंपड़ी एक बार भी न खुली। दो आदमी बराबर झोंपड़ी के दरवाजे पर बैठे जैसे पहरा दे रहे हों। धीरे-धीरे रात गुजरने लगी, मगर कैदखाना न खुला। अब मैंने मन में ठान लिया कि चाहे जैसे हो, एक बार इस झोंपड़ी में जरूर जाऊंगा। सभी झोंपड़ियों में मांस रखा था। मैं चुपके से एक झोंपड़ी में घुस गया और मांस का एक बड़ा-सा टुकड़ा उठा लाया। ये लोग मांस चूल्हे पर पतीली में नहीं पकाते थे; आग पर भून लेते थे। मैंने एक बड़ी-सी भुनी हुई टांग ली और बाहर लाकर पत्तियों में छिपा दी और सोचने लगा – साहब की झोंपड़ी में कैसे जाऊं? वे दोनों यमदूत अभी तक वहीं बैठे हैं। जब तक ये हट न जायें या सो न जायें, मेरा जाना मुश्किल था। फिर द्वार कैसे खोलूंगा? मुंह पर एक बड़ा-सा पत्थर भी तो खड़ा कर रखा था। मैं उस पत्थर को कैसे हटा सकूंगा? इस चिंता में बड़ी देर तक बैठा रहा। सारी देह चूर-चूर हो रही थी। बार-बार आंखें झपकी जाती थीं, पर एक क्षण ही में चौंक पड़ता था। इस तरह कोई आधी रात बीत गई। गीदड़ों ने दूसरे पहर की हांक लगाई। मैं धीरे से और दबे पांव झोंपड़ी के द्वार पर गया। दोनों यमदूत वहीं जमीन पर पड़े थे। उनकी नाक जोर-जोर से बज रही थी। कोई दूर से सुनता तो जान पड़ता, दो बिल्लियां लड़ रही हैं। मैं जान पर खेलकर उस पत्थर को खिसकाने लगा। पूरी चट्टान थी। कितना ही जोर पंजों से लगाता, पर वह जगह से हिलती तक न थी। उधर डर भी लगा हुआ था कि जरा भी खटका हुआ तो ये दोनों जाग पड़ेंगे और शायद मुझे जीता न छोड़ें। मैं सोचने लगा – आखिर इतनी बड़ी और भारी चट्टान ये कैसे हटा लेते हैं? अब तक मैं उसे उठाने की कोशिश कर रहा था। अब मुझे यह सूझी कि चट्टान को लंबान में ढकेल दूं। शायद खिसक जाये। ज्यों ही मैंने भरपूर जोर लगाया, चट्टान जरा-सी आगे को खिसक गयी। बस, उसकी कल मुझे मिल गयी। कई बार के ढकेलने से चट्टान द्वार से हट गयी। बायीं ओर ऐसी चीज लगी थी, जिससे वह दाहिनेबाएं की ओर न हिल सकती थी; सीधे-सीधे खिसक सकती थी। पत्थर हटते ही मैंने धीरे से द्वार खोला। जाकर गोश्त का टुकड़ा लाया। झोंपड़ी के अंदर पहुंचा। देखा, साहब और मेम जमीन पर बेदम पड़े थे। मैंने उनके पैरों को मुंह से चाटकर जगाया। दोनों घबराकर उठ बैठे और मारे डर के कोने की तरफ भागे, मगर कूं-कूं किया तो समझ गये, कल्लू है। दोनों मेरे गले से लिपट गये और मेरा सिर थपथपाकर प्यार करने लगे। मैंने मांस का टुकड़ा साहब के हाथ में रख दिया। उसकी गंध पाते ही वे खाने लगे। उस वक्त मुझे जितना आनंद हो रहा था, कह नहीं सकता। दोनों खाते जाते थे और बार-बार मुझे प्यार करते जाते थे। जब वे खा चुके, तो बचा हुआ टुकड़ा मुझे दे दिया। मैंने उसे वहीं खाया। अब पानी कहां से आवे?
खाने के बाद पानी पीने की आदत मेरी तो न थी, मगर आदमी तो खाते समय थोड़ा-बहुत पानी जरूर ही पीते हैं। उस वक्त मुझे यह बात याद आयी। मैं बाहर निकला और पानी की तलाश करने लगा। वहां उस झोंपड़ी के सिवा और किसी झोंपड़ी में किवाड़ न थे। झोंपड़ियां खुली थीं, लोग उनके द्वार पर सो रहे थे। मैं एक झोंपड़ी में घुस गया और पानी के लिए कोई बर्तन खोजने लगा। मिट्टी या दूध के बरतन वहां न थे। जानवरों की बड़ी खोपड़ियों में पानी रखा था। छोटी-छोटी खोपड़ियों में पानी निकालकर लोग पीते थे। मैंने भी एक छोटी खोपड़ी पानी से भरी और उसे दांतों में दबाये साहब के पास पहुंचा। दोनों पानी देखते ही उस पर टूट पड़े और एक ही सांस में पी गये। मैं खोपड़ी लेकर फिर गया और पानी भर लाया। इस तरह पांच-छः बार के आने-जाने में मालिकों की प्यास बुझी। दोनों को खिला-पिलाकर मैं धीरे के निकल आया और द्वार बंद कर फिर चट्टान को ज्यों-का-त्यों खिसका दिया। मैं चाहता तो मालिकों को भी उसी तरह निकाल लाता, पर जाता कहां? बेगाने देश में रात को कहां भटकते फिरते? ये काले आदमी फिर पकड़ लेते तो जान लेकर ही छोड़ते, इसलिए जब तक उस देश को अच्छी तरह देख-भालकर निकल भागने का मार्ग न निकाल लूं, मैंने उनका यहीं पड़े रहना अच्छा समझा। यही मेरा रोज का दस्तूर हो गया। मैं दिन-भर इधर-उधर देखभाल करता। रात को साहबों को खिलाता-पिलाता और सो रहता। कोई मुझे पकड़ न सकता था, न कोई भांप ही सकता था। मैंने इस वक्त तक कभी चोरी नहीं की थी, लेकिन इस चोरी को मैं पाप नहीं समझता। अगर मैं ऐसा न करता तो साहब-मेम जरूर भूखों मर जाते। ये काले आदमी इस तरह साहबों को क्यों कैद किये हुए थे यह मेरी समझ में न आता था। शायद वे समझते थे कि ये लोग हमें पकड़ने आये हैं। या समझते हों कि कोई-न-कोई इनकी तलाश करने तो आयेगा ही। उससे अच्छी-अच्छी चीजें ऐठेंगे; मगर ढंग से ऐसा जान पड़ता था कि वे साहब और मेम को देवता समझते हैं। वह झोंपड़ी देवताओं का मंदर थीं, क्योंकि प्रातःकाल सब-के-सब झोंपड़ी के सामने एक बार नाचने जाते थे। शायद यही उनकी पूजा थी। शायद उनका खयाल था कि देवताओं को खाने-पीने की जरूरत ही नहीं होती।